________________
मृषावादी]
[५५ पच्चक्खाणमवि त्थि, ण वि अस्थि कालमच्चू य, अरिहंता चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा पत्थि, णेवत्थि केइ रिसओ धम्माधम्मफलं च गवि अस्थि किंचि बहुयं च थोवगं वा, तम्हा एवं विजाणिऊण जहा सुबहु इंदियाणुकूलेसु सव्वविसएसु वट्टह, णत्थि काइ किरिया वा अकिरिया वा एवं भणंति णस्थिगवाइणो वामलोयवाई।
४७-दूसरे, नास्तिकवादी, जो जोक में विद्यमान वस्तुओं को भी अवास्तविक कहने के कारण लोकविरुद्ध मान्यता के कारण 'वामलोकवादी' हैं, उनका कथन इस प्रकार है-यह जगत् शून्य (सर्वथा असत्) है, क्योंकि जीव का अस्तित्व नहीं है। वह मनुष्यभव में या देवादि-परभव में नहीं जाता। वह पुण्य-पाप का किंचित् भी स्पर्श नहीं करता। सुकृत-पुण्य या दुष्कृत-पाप का (सुख-दुःख रूप) फल भी नहीं है। यह शरीर पाँच भूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) से बना हुआ है । वायु के निमित्त से वह सब क्रियाएँ करता है। कुछ लोग कहते हैं-श्वासोच्छ्वास की हवा ही जीव है।
___ कोई (बौद्ध) पांच स्कन्धों (रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार) का कथन करते हैं । कोई-कोई मन को ही जीव (आत्मा) मानते हैं। कोई वायु को ही जीव के रूप में स्वीकार करते हैं। किन्हीं-किन्हीं का मन्तव्य है कि शरीर सादि और सान्त है-शरीर का उत्पाद और विनाश हो जाता है। यह भव ही एक मात्र भव है। इस भव का समूल नाश होने पर सर्वनाश हो जाता है अर्थात् प्रात्मा जैसी कोई वस्तु शेष नहीं रहती। मृषावादी ऐसा कहते हैं। इस कारण दान देना, व्रतों का आचरण करना, पोषध की आराधना करना, तपस्या करना, संयम का आचरण करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना आदि कल्याणकारी अनुष्ठानों का (कुछ भी) फल नहीं होता। प्राणवध और असत्यभाषण भी (अशुभ फलदायक) नहीं हैं। चोरी और परस्त्रीसेवन भी कोई पाप नहीं हैं। परिग्रह और अन्य पापकर्म भी निष्फल हैं अर्थात् उनका भी कोई अशुभ फल नहीं होता। नारकों, तिर्यंचों और मनुष्यों की योनियाँ नहीं हैं। देवलोक भी नहीं है। मोक्ष-गमन या मुक्ति भी नहीं है। माता-पिता भी नहीं हैं। पुरुषार्थ भी नहीं है अर्थात् पुरुषार्थ कार्य की सिद्धि में कारण नहीं है। प्रत्याख्यानत्याग भी नहीं है। भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यकाल नहीं हैं और न मृत्यु है। अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव भी कोई नहीं होते । न कोई ऋषि है, न कोई मुनि है। धर्म और अधर्म का थोड़ा या बहुत-किंचित् भी फल नहीं होता । इसलिए ऐसा जानकर इन्द्रियों के अनुकूल (रुचिकर) सभी विषयों में प्रवृत्ति करो---किसी प्रकार के भोग-विलास से परहेज मत करो। न कोई शुभ क्रिया है और न कोई अशुभ क्रिया है। इस प्रकार लोक-विपरीत मान्यता वाले नास्तिक विचारधारा का अनुसरण करते हुए इस प्रकार का कथन करते हैं।
विवेचन–प्रस्तुत पाठ में नास्तिकवादियों की मान्यताओं का दिग्दर्शन कराया गया है । इससे पूर्व के सूत्र में विविध प्रकार के लौकिक जनों का, जो व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए, आजीविका, व्यापार-धंधा, परिवार-पालन आदि के लिए असत्यभाषण करते हैं, उनका कथन किया गया था। इस सूत्र में नास्तिकदर्शन का मन्तव्य उल्लिखित किया गया है। एक व्यक्ति किसी कारण जब असत्यभाषण करता है तब वह प्रधानतः अपना ही अहित करता है। किन्तु जब कोई दार्शनिक असत्य पक्ष की स्थापना करता है, असत्य को आगम में स्थान देता है, तब वह असत्य विराट रूप धारण कर लेता है। वह मृषावाद दीर्घकाल पर्यन्त प्रचलित रहता है और असंख्य-असंख्य लोगों को प्रभावित करता