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[प्रश्नव्याकरणसूत्र शु. १, अ.२
असत्य का सहारा लेने से दुष्कर्म गुरुतर बन जाता है। हँसी-मजाक में असत्य का प्रयोग साधारण समझा जाता है । कहना चाहिए कि असत्य हास्य-विनोद का मूलाधार है। किन्तु विवेकी पुरुष ऐसे हँसी-मजाक से बचते हैं, जिसके लिए असत्य का आश्रय लेना पड़े।
झूठी साक्षी स्पष्ट असत्य है। किन्तु प्राज-कल के न्यायालयों में यह बहुप्रचलित है । कतिपय लोगों ने इसे धंधा बना लिया है । कुछ रुपये देकर उनसे न्यायालयों में चाहे जो कहलवाया जा सकता है । ऐसे लोगों को भविष्य के दुष्परिणामों का ध्यान नहीं होता कि असत्य को सत्य और सत्य को असत्य कहने से आगे कैसी दुर्दशा भोगनी पड़ेगी।
चोरी करने वाले, जुआ खेलने वाले, व्यभिचारी, स्त्रियों को बहका कर उड़ा ले जाने वाले और चकला चलाने वाले लोग असत्य का सेवन किए विना रह ही नहीं सकते।
मिथ्या मतों को मानने वाले और त्यागियों के नाना प्रकार के वेष धारण करने वाले भी असत्यभाषी हैं । इनके विषय में आगे विस्तार से प्रतिपादन किया जाएगा।
कर्जदार को भी असत्य भाषण करना पड़ता है । जब उत्तमर्ण या साहूकार ऋण वसूलने के लिए तकाजे करता है और कर्जदार चुकाने की स्थिति में नहीं होता तो, एक सप्ताह में दूंगा, एक मास में चुका दूँगा, इत्यादि झूठे वायदे करता है । अतएव सद्गृहस्थ को इस असत्य से बचने के लिए ऋण न लेना ही सर्वोत्तम है । अपनी आवश्यकताओं को सीमित करके प्राय को देखते हुए ही व्यय करना चाहिए । कदाचित् किसी से कभी उधार लेना ही पड़े तो उतनी ही मात्रा में लेना चाहिए, जिसे सरलता पूर्वक चुकाना असंभव न हो और जिस के कारण असत्य न बोलना पड़े-अप्रतिष्ठा न हो।
जुलाहे, सुनार, कारीगर, वणिक् आदि धंधा करने वाले सभी असत्यभाषी होते हैं, ऐसा नहीं है । शास्त्रकार ने मूल में 'केई' शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया है ।
इसी प्रकार मूल पाठ में उल्लिखित अन्य विशेषणों के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि असत्य के पाप से बचने के लिए सदा सावधान रहना चाहिए । मषावादी-नास्तिकवादी का मत
___४७-प्रवरे पत्थिगवाइणो वामलोयवाई भणंति-सुण्णं' ति, णित्थ जीवो, ण जाइ इह परे वा लोए, ण य किचिवि फुसइ पुण्णपावं, पत्थि फलं सुकयदुक्कयाणं, पंचमहाभूइयं सरीरं भासंति, हे वायजोगजुत्तं । पंच य खंधे भणंति केइ, मणं य मणजीविया वदंति, वाउजीवोत्ति एवमाहंसु, सरीरं साइयं सणिधणं, इहे भवे एणभवे तस्स विप्पणासम्मि सव्वणासोत्ति, एवं जपंति मुसावाई । तम्हा दाणवय-पोसहाणं तव-संजम-बंभचेर-कल्लाणमाइयाणं गत्थि फलं, ण वि य पाणवहे अलियवयणं ण चेव चोरिक्ककरणं परदारसेवणं वा सपरिग्गह-पावकम्मकरणं वि णत्थि किंचि ण णेरइय-तिरिय-मणुयाण जोणी, ण देवलोगो वा अस्थि, ण य अस्थि सिद्धिगमणं, अम्मापियरो गप्थि, ण वि अत्थि, पुरिसकारो, १. प्रागमोदयसमिति, आचार्य हस्तीमलजी म. वाले और सैलाना वाले संस्करण में 'सुण्णं ति' पाठ नहीं है, किन्तु
अभयदेवीय टीका में इसकी व्याख्या की गई है। अतः यह पाठ संगत है। सन्मति ज्ञानपीठ प्रागरा वाले संस्करण में इसे स्वीकार किया है। -सम्पादक