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द्वितीय अध्ययन : मृषावाद
मृषावाद का स्वरूप
४४3- जंबू' ! बिइयं श्रलियवयणं लहुसग लहुचवल भणियं भयंकरं दुहकरं श्रयसकरं वेरकरगं श्ररह-रह - रागदोस- मणसं किलेस - वियरणं श्रलियणियडिसाइजोयबहुलं णीयजणणिसेवियं णिस्संसं अप्प - च्चयकारगं परमसाहुगरहणिज्जं परपीलाकारगं परमकिण्हलेस्स सेवियं दुग्गइविणिवायविवडढ्णं भवपूणभवकरं चिरपरिचिय - मणुगयं दुरंतं कित्तियं बिइयं अहम्मदारं ।
४४ - जम्बू ! दूसरा (आस्रवद्वार ) अलीकवचन अर्थात् मिथ्याभाषण है । यह गुण गौरव से रहित, हल्के, उतावले और चंचल लोगों द्वारा बोला जाता है, ( स्व एवं पर के लिए) भय उत्पन्न करने वाला, दुःखोत्पादक, अपयशकारी एवं वैर उत्पन्न करने वाला है । यह अरति, रति, राग, द्वेष और मानसिक क्लेश को देने वाला है। शुभ फल से रहित है । धूर्तता एवं अविश्वसनीय वचनों की प्रचुरता वाला है । नीच जन इसका सेवन करते हैं । यह नृशंस, क्रूर अथवा निन्दित है । अप्रतीतिकारक है - विश्वसनीयता का विघातक है। उत्तम साधुजनों-सत्पुरुषों द्वारा निन्दित है । दूसरों कोजिनसे सत्यभाषण किया जाता है, उनको पीड़ा उत्पन्न करने वाला है। उत्कृष्ट कृष्णलेश्या से हित है अर्थात् कृष्णश्या वाले लोग इसका प्रयोग करते हैं । यह दुर्गतियों में निपात को बढ़ाने वाला - वारंवार दुर्गतियों में ले जाने वाला है । भव- पुनर्भव करने वाला अर्थात् जन्म-मरण की वृद्धि करने वाला है । यह चिरपरिचित है - अनादि काल से जीव इसके अभ्यासी हैं । निरन्तर साथ रहने वाला है और बड़ी कठिनाई से इसका अन्त होता है अथवा इसका परिणाम अतीव अनिष्टं होता है ।
विवेचन - प्राणवध नामक प्रथम प्रस्रवद्वार के विवेचन के पश्चात् दूसरे प्रस्रवद्वार का विवेचन यहाँ से प्रारम्भ किया गया है । श्रीसुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी को लक्ष्य करके यह प्ररूपणा की है ।
अलीक वचनों का स्वरूप समझाने के लिए उसे अनेकानेक विशेषणों से युक्त प्रकट किया गया है ।
असत्य वचनों का प्रयोग ऐसे मनुष्य ही करते हैं जिनमें गुणों की गरिमा नहीं होती, जो क्षुद्र, हीन, तुच्छ या टुच्चे होते हैं । जो अपने वचनों का स्वयं ही मूल्य नहीं जानते, जो उतावल में सोचे - समझे विना ही बोलते हैं और जिनकी प्रकृति में चंचलता होती है । इस प्रकार विचार किए विना चंचलतापूर्वक जो वचन बोले जाते हैं, वे स्व-पर के लिए भयंकर सिद्ध होते हैं । उनके फलस्वरूप अनेक प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं । अतएव साधुजन - सत्पुरुष असत्य का कदापि सेवन नहीं करते । वे सुविचारित सत्य तथ्य का ही प्रयोग करते हैं और वह भी ऐसा जिससे किसी को पीड़ा न हो, क्योंकि पीड़ाजनक वचन तथ्य होकर भी सत्य नहीं कहलाता ।
१. “ इह खलु जंबू” – पाठ भी कुछ प्रतियों में है ।