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उपसंहार]
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४३-इस प्रकार (हिंसारूप) पापकर्म करने वाले प्राणी नरक और तिर्यंच योनि में तथा कुमानुष-अवस्था में भटकते हुए अनन्त दुःख प्राप्त करते हैं।
यह (पूर्वोक्त) प्राणवध (हिंसा) का फलविपाक है, जो इहलोक (मनुष्यभव) और परलोक (नारकादि भव) में भोगना पड़ता है। यह फलविपाक अल्प सुख किन्तु (भव-भवान्तर में) अत्यधिक दुःख वाला है । महान् भय का जनक है और अतीव गाढ़ कर्मरूपी रज से युक्त है। अत्यन्त दारुण है,
यन्त कठोर है और अत्यन्त असाता को उत्पन्न करने वाला है। हजारों वर्षों (सुदीर्घ काल) में इससे छटकारा मिलता है। किन्तु इसे भोगे विना छटकारा नहीं मिलता। हिंसा का यह फलविपाक ज्ञातकुल-नन्दन महात्मा महावीर नामक जिनेन्द्रदेव ने कहा है। यह प्राणवध चण्ड, रौद्र, क्षुद्र मौर अनार्य जनों द्वारा आचरणीय है । यह घृणारहित, नृशंस, महाभयों का कारण, भयानक, त्रासजनक और अन्यायरूप है, यह उद्वेगजनक, दूसरे के प्राणों की परवाह न करने वाला, धर्महीन, स्नेहपिपासा से शून्य, करुणाहीन है। इसका अन्तिम परिणाम नरक में गमन करना है, अर्थात् यह नरकगति में जाने का कारण है । मोहरूपी महाभय को बढ़ाने वाला और मरण के कारण उत्पन्न होने वाली दीनता का जनक है।
विवेचन-नरक से निकले तिर्यंचयोनियों में उत्पन्न होकर पश्चात् मनुष्यभव में जन्मे अथवा सीधे मनुष्यभव में आए घोर हिंसाकारी जीवों को विभिन्न पर्यायों में दुःख भोगना पड़ता है, उसका वर्णन शास्त्रकार ने विस्तारपूर्वक किया है । उस फलविपाक का उपसंहार प्रस्तुत पाठ में किया गया है।
___ यह फल विपाक शास्त्रकार ने अपनी बुद्धि या कल्पना से प्ररूपित नहीं किया है किन्तु ज्ञातपुत्र सर्वज्ञ देव श्रीमहावीर ने कहा है, यह उल्लेख करके प्रस्तुत प्ररूपणा की पूर्ण प्रामाणिकता भी प्रकट कर दी है।
मूल में हिंसा के फलविपाक को अल्प सुख और बहुत दुःख का कारण कहा गया है, इसका तात्पर्य यह है कि हिंसक को हिंसा करते समय प्रसन्नता होती है। शिकारी शिकार करके, उसमें सफलता प्राप्त करके अर्थात् शशक, हिरण, व्याघ्र, सिंह आदि के प्राण हरण करके प्रमोद का अनुभव करता है, यह हिंसाजन्य सुख है जो वास्तव में घोर दुःख का कारण होने से सुखाभास ही है। सुख की यह क्षणिक अनुभूति जितनी तीव्र होती है, भविष्य में उतना ही अधिक और तीव्र दुःख का अनुभव करना पड़ता है।
प्राणवध के फलविपाक को चण्ड, रुद्र आदि शब्दों द्वारा व्यक्त किया गया है। इन शब्दों का स्पष्टीकरण पूर्व में किया जा चुका है। (देखिए सूत्र संख्या २)
प्रथम अधर्मद्वार समाप्त हुआ।
श्री सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी से कहा-जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर से सुना है, वैसा हो तुम्हारे समक्ष प्रतिपादन किया है, स्वमनीषिका से नहीं ।
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