________________
४६]
[प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. १, अ. १
सूक्ष्म-सूक्ष्मनामकर्म के उदय से जिन स्थावर जीवों का शरीर अतीव सूक्ष्म हो, चर्मचक्षु से दिखाई न दे, सिर्फ अतिशयज्ञानी ही जिसे देख सकें, ऐसे लोकव्यापी जीव ।
बादर-बादरनामकर्म के उदय से जिनका शरीर अपेक्षाकृत बादर हो। यद्यपि सूक्ष्म और बादर शब्द आपेक्षिक हैं, एक की अपेक्षा जो सूक्ष्म है वह दूसरे की अपेक्षा बादर (स्थूल) हो सकता है और जो किसी को अपेक्षा बादर है वह अन्य की अपेक्षा सूक्ष्म भी हो सकता है। किन्तु सूक्ष्म और बादर यहाँ आपेक्षिक नहीं समझना चाहिए। नामकर्म के उदय पर ही यहाँ सूक्ष्मता और बादरता निर्भर है । अर्थात् सूक्ष्मनामकर्म के उदय वाले जीव सूक्ष्म और बादर नामकर्म के उदय वाले जीव बादर कहे गए हैं। कोई-कोई त्रसजीव भी अत्यन्त सूक्ष्म शरीर वाले होते हैं। उनका शरीर भी चक्षुगोचर नहीं होता। सम्मूछिम मनुष्यों का शरीर भी इतना सूक्ष्म होता है कि दृष्टिगोचर नहीं हो सकता। फिर भी वे यहाँ गृहीत नहीं हैं, क्योंकि उनके सूक्ष्मनामकर्म का उदय नहीं होता।
पर्याप्तक-अपर्याप्तक-इन दोनों शब्दों की व्याख्या पूर्व में की जा चुकी है।
प्रत्येकशरीर-यह वनस्पतिकाय का भेद है। जिस जीव के एक शरीर का स्वामी एक ही हो, वह प्रत्येकशरीर या प्रत्येकशरीरो जीव कहलाता है।
साधारणशरीर-ऐसे जीव जो एक ही शरीर में, उसके स्वामी के रूप में अनन्त हों। ऐसे जीव निगोदकाय के जीव भी कहे जाते हैं। सूक्ष्म निगोद के जीव सम्पूर्ण प्राकाश में व्याप्त हैं । बादर निगोद के जीव कन्दमूल आदि में होते हैं।
लोकाकाश में असंख्यात गोल हैं। एक-एक गोल में असंख्यात-असंख्यात निगोद हैं और एक-एक निगोद में अनन्त-अनन्त जीव हैं ।
साधारणशरीर वाले जीवों के विषय में कहा गया है कि वे एक शरीर में अर्थात् एक ही शरीर के स्वामी के रूप में अनन्त होते हैं। यह कथन औदारिकशरीर की अपेक्षा से ही समझना चाहिए, अर्थात् वे जीव तो अनन्त होते हैं किन्तु उन सब का शरीर एक ही होता है। जब शरीर एक ही होता है तो उनका आहार और श्वासोच्छ्वास आदि भी साधारण ही होता है ।' किन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि उनके तैजस और कार्मण शरीर भिन्न-भिन्न ही होते हैं।
ये साधारणशरीरी अथवा निगोदिया जीव अनन्त काल तक अर्थात् अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणी काल पर्यन्त उसी पर्याय में लगातार जन्म-मरण की वेदना का अनुभव करते रहते हैं।
४१-कुद्दाल-कुलिय-दालण-सलिल-मलण-खुभण रुंभण-अणलाणिल-विविहसत्थघट्टण-परोप्पराभिहणणमारणविराहणाणि य अकामकाई परप्पयोगोदीरणाहि य कज्जप्पोयणेहि य पेस्सपसुणिमित्तं प्रोसहाहारमाइएहि उक्खणण उक्कत्थण-पयण-कुट्टण-पीसण-पिट्टण-भज्जण-गालण-अामोडणसडण-फुडण-भंजण-छयण-तच्छण-विलुचण-पत्तज्झोडण-अग्गिदहणाइयाइं, एवं ते भवपरंपरादुक्खसमणुबद्धा अडंति संसारबोहणकरे जीवा पाणाइवायणिरया अणंतकालं । १. साहारणमाहारो, साहारणमाणपाणगहणं च ।
साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं भणियं ॥ -गोमट्टसार, जीवकाण्ड १९२