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________________ द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीवों के दुःख] द्वीन्द्रिय जीवों के दुःख ___३९-गंडूलय-जल्य-किमिय-चंदणगमाइएसु य जाइकुलकोडिसयसहस्सेहिं सतहि अणूणएहि बेइंदियाणं तहि तहि चेव जम्मणमरणाणि अणुहवंता कालं संखेज्जगं भमंति णेरइयसमाण-तिव्वदुक्खा फरिस-रसण-संपउत्ता। ३९-गंडलक-गिंडोला, जलौक-जोंक, कृमि, चन्दनक आदि द्वीन्द्रिय जीव पूरी सात लाख कुलकोटियों में से वहीं-वहीं अर्थात् विभिन्न कुलकोटियों में जन्म-मरण की वेदना का अनुभव करते हुए संख्यात हजार वर्षों तक भ्रमण करते रहते हैं । वहाँ भी उन्हें नारकों के समान तीव्र दुःख भुगतने पड़ते हैं । ये द्वीन्द्रिय जीव स्पर्शन और रसना-जिह्वा, इन दो इन्द्रियों वाले होते हैं । विवेचन-सूत्र का अर्थ स्पष्ट है । विशेषता इतनी ही है कि इनकी कुलकोटियाँ सात लाख हैं और ये जीव दो इन्द्रियों के माध्यम से तीव्र असाता वेदना का अनुभव करते हैं। एकेन्द्रिय जीवों के दुःख ४०-पत्ता एगिदियत्तणं वि य पुढवि-जल-जलण-मारुय-वणप्फइ-सुहुम-बायरं च पज्जत्तमपज्जत्तं पत्तेयसरीरणाम-साहारणं च पत्तेयसरीरजीविएसु य तत्थवि कालमसंखेज्जगं भमंति प्रणंतकालं च अणंतकाए फासिदियभावसंपउत्ता दुक्खसमुदयं इमं प्रणिठें पावंति पुणो पुणो तहिं तहिं चेव परभवतरुगणगहणे। ४०–एकेन्द्रिय अवस्था को प्राप्त हुए पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के दो-दो भेद हैं—सूक्ष्म और बादर, अर्थात् सूक्ष्मपृथ्वीकाय और बादरपृथ्वीकाय, सूक्ष्मजलकाय और बादरजलकाय आदि। इनके अन्य प्रकार से भी दो-दो प्रकार होते हैं, यथा-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । वनस्पतिकाय में इन भेदों के अतिरिक्त दो भेद और भी हैं—प्रत्येकशरीरी और साधारणशरीरी। इन भेदों में से प्रत्येकशरीर पर्याय में उत्पन्न होने वाले पापी-हिंसक जीव असंख्यात काल तक उन्हीं उन्हीं पर्यायों में परिभ्रमण करते रहते हैं और अनन्तकाय अर्थात् साधारणशरीरी जीवों में अनन्त काल तक पुनः पुनः जन्म-मरण करते हुए भ्रमण किया करते हैं। ये सभी जीव एक स्पर्शनेन्द्रिय वाले होते हैं। इनके दुःख अतोव अनिष्ट होते हैं। वनस्पतिकाय रूप एकेन्द्रिय पर्याय में कायस्थिति सबसे अधिक अनन्तकाल की है।' विवेचन-प्रकृत सूत्र में एकेन्द्रिय जीवों के दुःखों का वर्णन करने के साथ उनके भेदों और प्रभेदों का उल्लेख किया गया है। एकेन्द्रिय जीव मूलतः पाँच प्रकार के हैं-पृथ्वीकाय आदि। इनमें से प्रत्येक सूक्ष्म और बादर के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं। वनस्पतिकाय के इन दो भेदों के अतिरिक्त साधारणशरीरी और प्रत्येकशरीरी, ये दो भेद अधिक होते हैं। इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है१. अस्संखोसप्पिणिउस्सप्पिणी एगिदियाणं चउण्हं । ता चेव ऊ अणंता, वणस्सईए य बोद्धव्वा । -मभयदेव टीका पृ. १४-मागमोदयसमिति
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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