SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नरकपालों द्वारा दिये जाने वाले घोर दुःख] जंपमाणा विप्पेक्खंता दिसोदिसि अत्ताणा प्रसरणा प्रणाहा प्रबंधवा बंधुविप्पहूणा विपलायंति य मिया इव वेगेण भयुग्विग्गा। २८–'अच्छा, हाँ, (तुम्हें प्यास सता रही है ? तो लो) यह निर्मल और शीतल जल पीयो।' इस प्रकार कह कर नरकपाल अर्थात् परमाधामी असुर नारकों को पकड़ कर खौला हुआ सीसा कलश से उनकी अंजुली में उड़ेल देते हैं। उसे देखते ही उनके अंगोपांग कांपने लगते हैं। उनके नेत्रों से प्रांसू टपकने लगते हैं। फिर वे कहते हैं- (रहने दीजिए), हमारी प्यास शान्त हो गई !' इस प्रकार करुणापूर्ण वचन बोलते हुए भागने-बचने के लिए दिशाएँ-इधर-उधर देखने लगते हैं । अन्ततः वे त्राणहीन, शरणहीन, अनाथ-हित को प्राप्त कराने वाले और अहित से बचाने वाले से रहित, बन्धुविहीन-जिनका कोई सहायक नहीं, बन्धुओं से वंचित एवं भय के मारे घबड़ा करके मृग की तरह बड़े वेग से भागते हैं। विवेचन-जिन लोगों ने समर्थ होकर, प्रभुता प्राप्त करके, सत्तारूढ होकर असहाय, दुर्बल एवं असमर्थ प्राणियों पर अत्याचार किए हैं, उन्हें यदि इस प्रकार की यातनाएँ भोगनी पड़े तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? यहाँ आंसुओं के टपकने का या इसी प्रकार के जो अन्य कथन हैं, वे भाव के द्योतक हैं, जैसे अश्रुपात केवल आन्तरिक पीड़ा को प्रकट करने के लिए कहा गया है। प्रस्तुत कथन मुख्य रूप से औदारिक शरीरधारियों (मनुष्यों) के लिए है, अतएव उन्हें उनकी भाषा में-भावना में समझाना शास्त्रकार ने योग्य समझा होगा। - २९–घेत्तूणबला पलायमाणाणं णिरणुकंपा मुहं विहाडेत्तु लोहदंडेहि कलकलं ण्हं वयणंसि छुभंति केइ जमकाइया हसंता। तेण दड्डा संतो रसंति य भीमाइं विस्सराइं रुवंति य कलुणगाई पारेयवगा व एवं पलविय-विलाव-कलुण-कंदिय-बहुरुण्णरुइयसद्दो परिदेवियरुद्धबद्धय णारयारवसंकुलो णीसिट्ठो। रसिय-भणिय-कुविय-उक्कूइय-णिरयपाल तज्जिय गिण्हक्कम पहर छिद भिंद उप्पाडेह उक्खणाहि कत्ताहि विकत्ताहि य भुज्जो हण विहण विच्छब्भोच्छुब्भ-पाकड्ढ-विकड्ढ । ___कि ण जंपसि ? सराहि पावकम्माई' दुक्कयाई एवं वयणमहप्पगब्भो पडिसुयासहसंकुलो तासो सया णिरयगोयराणं महाणगरडज्झमाण-सरिसो णिग्घोसो, सुच्चइ अणिट्ठो तहियं णेरइयाणं जाइज्जंताणं जायणाहिं। २९-कोई-कोई अनुकम्पा-विहीन यमकायिक उपहास करते हुए इधर-उधर भागते हुए उन नारक जीवों को जबर्दस्ती पकड़ कर और लोहे के डंडे से उनका मुख फाड़ कर उसमें उबलता हुआ शीशा डाल देते हैं । उबलते शीशे से दग्ध होकर वे नारक भयानक आर्तनाद करते हैं बुरी तरह चिल्लाते हैं। वे कबूतर की तरह करुणाजनक अाक्रंदन करते हैं, खूब रुदन करते हैं—चीत्कार करते हुए अश्रु बहाते हैं । विलाप करते हैं । नरकपाल उन्हें रोक लेते हैं, बांध देते हैं । तब नारक आर्तनाद करते हैं, हाहाकार करते हैं, बड़बड़ाते हैं-शब्द करते हैं, तब नरकपाल कुपित होकर और उच्च ध्वनि से उन्हें धमकाते हैं । कहते हैं—इसे पकड़ो, मारो, प्रहार करो, छेद डालो, भेद डालो, इसकी १. 'पावकम्माणं' के आगे 'कियाई' पाठ भी कुछ प्रतियों में है, जिसका अर्थ-'किये हुए' होता है।
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy