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________________ हिंसक जातियाँ] [२७ होता है । प्राणियों की हिंसा की कथा-वार्ता में ही वे आनन्द मानते हैं। वे अनेक प्रकार के पापों का आचरण करके संतोष अनुभव करते हैं । विवेचन-जलचर और स्थलचर प्राणियों का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। जिनके पैरों के अग्रभाग में नख होते हैं वे सिंह, चीता आदि पशु सनखपद कहलाते हैं। संडासी जैसी चोंच वाले प्राणी ढंक, कंक आदि पक्षी होते हैं। प्रस्तुत पाठ में कुछ पारिभाषिक शब्द प्रयुक्त हुए हैं, जैसे संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्त और अपर्याप्त । उनका प्राशय इस प्रकार है संज्ञी-संज्ञा अर्थात् विशिष्ट चेतना-आगे-पीछे के हिताहित का विचार करने की शक्ति जिन प्राणियों को प्राप्त है, वे संज्ञी अथवा समनस्क-मन वाले–कहे जाते हैं । ऐसे प्राणी पंचेन्द्रियों में ही होते हैं। असंज्ञी-एक इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर चार इन्द्रिय वाले सभी जीव असंज्ञी हैं, अर्थात् उनमें मनन-चिन्तन करने की विशिष्ट शक्ति नहीं होती। पाँचों इन्द्रियों वाले जीवों में कोई-कोई संज्ञी और कोई-कोई असंज्ञी होते हैं। पर्याप्त-पर्याप्ति शब्द का अर्थ पूर्णता है। जिन जीवों को पूर्णता प्राप्त हो चुकी है, वे पर्याप्त और जिन्हें पूर्णता प्राप्त नहीं हुई है, वे अपर्याप्त कहलाते हैं । अभिप्राय यह है कि कोई भी जीव वर्तमान भव को त्याग कर जब आगामी भव में जाता है तब तैजस और कार्मण शरीर के सिवाय उसके साथ कुछ नहीं होता । उसे नवीन भव में नवीन सृष्टि रचनी पड़ती है । सर्वप्रथम वह उस भव के योग्य शरीरनिर्माण करने के लिए पुद्गलों का आहरणग्रहण करता है। इन पुद्गलों को ग्रहण करने की शक्ति उसे प्राप्त होती है। इस शक्ति की पूर्णता आहारपर्याप्ति कहलाती है। तत्पश्चात् उन गृहीत पुद्गलों को शरीररूप में परिणत करने की शक्ति की पूर्णता शरीरपर्याप्ति है। गृहीत पुद्गलों को इन्द्रिय रूप में परिणत करने की शक्ति की पूर्णता इन्द्रियपर्याप्ति है। श्वासोच्छ्वास के योग्य, भाषा के योग्य और मनोनिर्माण के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन के रूप में परिणत करने की शक्ति की पूर्णता क्रमशः श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति कही जाती है। शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन का निर्माण यथाकाल होता है । उनके लिए दीर्घ काल अपेक्षित है । किन्तु निर्माण करने की शक्ति-क्षमता अन्तर्मुहूर्त में ही उत्पन्न हो जाती है। जिन जीवों को इस प्रकार की क्षमता प्राप्त हो चुकी है, वे पर्याप्त और जिन्हें वह क्षमता प्राप्त नहीं हुई- होने वाली है अथवा होगी ही नहीं---जो शीघ्र ही पुनः मृत्यु को प्राप्त हो जाएँगे, वे अपर्याप्त कहलाते हैं। पर्याप्तियाँ छह प्रकार की हैं--१. आहारपर्याप्ति, २. शरीरपर्याप्ति, ३. इन्द्रियपर्याप्ति, ४. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, ५. भाषापर्याप्ति और ६. मनःपर्याप्ति। इनमें से एकेन्द्रिय जीवों में आदि की चार, द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रियों में पाँच और संज्ञी पंचेन्द्रियों में छहों पर्याप्तियाँ होती हैं ।स भी पर्याप्तियों का प्रारंभ तो एक साथ हो जाता है किन्तु पूर्णता क्रमशः होती है।
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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