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________________ [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. १, अ. १ रोमक, रुरु, मरुक, चिलात, इन देशों के निवासी, जो पाप बुद्धि वाले हैं, वे (हिंसा में प्रवृत्त रहते हैं।) . विवेचन-मूल पाठ में जिन जातियों का नाम-निर्देश किया गया है, वे अधिकांश देश-सापेक्ष हैं। इनमें कुछ नाम ऐसे हैं जो आज भी भारत के अन्तर्गत हैं और कुछ ऐसे जो भारत से बाहर हैं। कुछ नाम परिचित हैं, बहुत-से अपरिचित हैं । टीकाकार के समय में भी उनमें से बहुत-से अपरिचित ही थे। कुछ के विषय में आधुनिक विद्वानों ने जो अन्वेषण किया है, वह इस प्रकार है शक-ये सोवियाना अथवा कैस्पियन सागर के पूर्व में स्थित प्रदेश के निवासी थे। ईसा की प्रथम शताब्दी में उन्होंने तक्षशिला, मथुरा तथा उज्जैन पर अपना प्रभाव जमा लिया था। चौथी शताब्दी तक पश्चिमी भारत पर ये राज्य करते रहे। बर्बर-इन लोगों का प्रदेश उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रदेश से लगाकर अरब सागर तक फैला हुआ था। शबर-डॉ. डी. सी. सरकार ने इनको गंजम और विशाखापत्तन के सावर लोगों के सदृश माना है । डॉ. बा. सी. लॉ इन्हें दक्षिण के जंगल-प्रदेश की जाति मानते हैं। 'पउमचरिउं' १ में इन्हें हिमालय के पार्वत्य प्रदेश का निवासी बतलाया गया है । 'ऐतरेय ब्राह्मण' में इन्हें दस्युओं के रूप में मांध्र, पुलिन्द और पुड्रों के साथ वर्गीकृत किया गया है। यवन-अशोककालिक इनका निवासस्थान काबुल नदी की घाटी एवं कंधार देश था। पश्चात् ये उत्तर-पश्चिमी भाग में रहे। कालीदास के अनुसार यवनराज्य सिन्धु नदी के दक्षिणी तट पर था। ___ साधनाभाव से पाठनिर्दिष्ट सभी प्रदेशों और उनमें बसने वाली जातियों का परिचय देना शक्य नहीं है । विशेष जिज्ञासु पाठक अन्यत्र देखकर उनका परिचय प्राप्त कर सकते हैं। २१-जलयर-थलयर-सणप्फ-योरग-खहयर-संडासतुड-जीवोवग्घायजीवी सण्णी य असण्णिणो पज्जत्ते अपज्जत्ते य असुभलेस्स-परिणामे एए अण्णे य एवमाई करेंति पाणाइवायकरणं । पावा पावाभिगमा पावरुई पाणवहकयरई पाणवहरूवाणुट्ठाणा पाणवहकहासु अभिरमंता तुट्ठा पावं करेत्तु होति य बहुप्पगारं । २१-ये-पूर्वोक्त विविध देशों और जातियों के लोग तथा इनके अतिरिक्त अन्य जातीय और अन्य देशीय लोग भी, जो अशुभ लेश्या-परिणाम वाले हैं, वे जलचर, स्थलचर, सनखपद, उरग, नभश्चर, संडासी जैसी चोंच वाले आदि जीवों का घात करके अपनी आजीविका चलाते हैं । वे संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों का हनन करते हैं। वे पापी जन पाप को ही उपादेय मानते हैं। पाप में ही उनकी रुचि-प्रीति होती है। वे प्राणियों का घात करके प्रसन्नता अनुभव करते हैं। उनका अनुष्ठान कर्त्तव्य प्राणवध करना ही १. पउमचरिउं-२७-५-७. २. किसी किसी प्रति में यहाँ "पावमई" शब्द भी है।
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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