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________________ 199 हिंसा करने के प्रयोजन ] शाकाहारी निर्जीव अंडा - प्राजकल शाकाहारी अंडे का चलन भी बढ़ता जा रहा है । कहा जाता है कि अंडा पूर्ण भोजन है, अर्थात् उसमें वे सभी एमीनो एसिड मौजूद हैं जो शरीर के लिए आवश्यक होते हैं । पर दूध भी एक प्रकार से भोजन के उन सभी तत्त्वों से भरपूर है जो शारीरिक क्रियाओं के लिए अनिवार्य हैं । अतः जब दूसरे पदार्थों से आवश्यक एमीनो एसिड प्राप्त किया जा सकता है और उससे भी अपेक्षाकृत सस्ती कीमत में, तब अंडा खाना क्यों जरूरी है ? फिर अंडे की जर्दी में कोलेस्ट्रोल की काफी मात्रा होती है । यह सभी जानते हैं कि कोलेस्ट्रोल की मात्रा शरीर में बढ़ जाने पर ही हृदयरोग, हृदयाघात आदि रोग होते हैं । आज की वैज्ञानिक व्यवस्था के अनुसार शरीर को नीरोग और स्वस्थ रखने के लिए ऐसे पदार्थों के सेवन से बचना चाहिए, जिनमें कोलेस्ट्रोल की मात्रा विद्यमान हो । .... अंडे में विटामिन 'सी' नहीं होता और इसकी पूर्ति के लिए अंडे के साथ अन्य ऐसे पदार्थों का सेवन जरूरी है जिनमें विटामिन 'सी' पाया जाता है । दूध में यह बात नहीं है । वह सब आवश्यक तत्त्वों से भरपूर है । मेरे विचार से अंडा अंडा ही है, शाकाहारी क्या ? "बच्चे देने वाले अंडे में जो तत्त्व होते हैं वे सभी तथाकथित शाकाहारी अंडे में भी मिलते हैं । वैज्ञानिकों द्वारा जो प्रयोग किए गए हैं, उनसे यह सिद्ध हो गया है कि यदि शाकाहारी अंडे को भी विभिन्न प्रकार से उत्तेजित किया जाए तो उसमें जीवित प्राणी की भांति ही क्रियाएँ होने लगती हैं । इसलिए यह कहना तो गलत होगा कि बच्चे न देने वाले अंडों में जीव नहीं होता । अतः अहिंसा में विश्वास करने वाले लोगों को शाकाहारी अंडे से भी परहेज करना ही चाहिए । अन्त में डाक्टर महोदय कहते हैं- यह कितना विचित्र लगता है कि मानव श्रादिकाल में, जब सभ्यता का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था, जंगली पशुओं को मार कर अपना पेट भरता था और ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास होता गया, वह मांसाहार से दूर होता गया । किन्तु अब लगता है कि नियति अपना चक्र पूरा कर रही है । मानव अपने भोजन के लिए पशुओं की हत्या करना अब बुरा नहीं मान रहा । क्या हम फिर उसी शिकारी संस्कृति की ओर आगे नहीं बढ़ रहे हैं, जिसे सभ्य और जंगली कह कर हजारों वर्ष पीछे छोड़ आए थे ? १ इसी प्रकार मेद, रक्त, यकृत, फेफड़ा, प्रांत, हड्डी, दन्त, विषाण आदि विभिन्न अंगों के लिए भी भिन्न-भिन्न प्रकार के प्राणियों का पापी लोग घात करते हैं । इन सब का पृथक्-पृथक् उल्लेख करना अनावश्यक है । मात्र विलासिता के लिए अपने ही समान सुख - दुःख का अनुभव करने वाले, दीन-हीन, असहाय, मूक और अपना बचाव करने में असमर्थ निरपराध प्राणियों का हनन करना मानवीय विवेक का दिवाला निकालना है, हृदयहीनता और अन्तरतर में पैठी पैशाचिक वृत्ति का प्रकटीकरण है । विवेकशील मानव को इस प्रकार की वस्तुओंों का उपयोग करना किसी भी प्रकार योग्य नहीं कहा जा सकता । १२ – अण्णेहि य एवमाइएहि बहूहि कारणसएहिं अबुहा इह हिंसंति तसे पाणे । इमे य - एगिदिए बहवे वरा तसे य अण्णे तयस्सिए चेव तणुसरीरे समारंभंति । श्रत्ताणे, प्रसरणे, प्रणाहे, प्रबंधवे, कम्मणिगड- बद्धे, प्रकुसलपरिणाम मंदबुद्धि जणदुव्विजाणए, पुढविमए, पुढविसंसिए, जलमए, जलगए, १ - राजस्थानपत्रिका, १७ अक्टूबर, १९८२
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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