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________________ [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. १, अ.१ स्वकेन्द्रित विचारधारा व्यक्ति को क्षुद्र बनाती है । क्षुद्र प्राणी इसका सेवन करते हैं। यह प्रात्मभाव की अपेक्षा नीच भी है । अतएव इसे क्षुद्र कहा गया है । (५) साहसिक-आवेश में विचारपूर्वक प्रवृत्ति का अभाव होता है। उसमें आकस्मिक अनसोचा काम व्यक्ति कर गुजरता है। स्वनियंत्रण भंग होता है । उत्तेजक परिस्थिति से प्रवृत्ति गतिशील होती है । विवेक लुप्त होता है । अविवेक का साम्राज्य छा जाता है। दशवकालिक के अनुसार विवेक अहिंसा है, अविवेक हिंसा है। साहसिक अविवेकी होता है । इसी कारण उसे हिंसा कहा गया है । 'साहसिकः सहसा अविचार्य कारित्वात्' अर्थात् विचार किए बिना कार्य कर डालने वाला। (६) प्रणारियो—अनार्य पुरुषों द्वारा प्राचरित होने से अथवा हेय प्रवृत्ति होने से इसे अनार्य कहा गया है। (७) णिग्घिणो–हिंसा करते समय पाप से घृणा नहीं रहती, अतएव यह निघृण है। (८) णिस्संसो-हिंसा दयाहीनता का कार्य है, प्रशस्त नहीं है, अतएव नृशंस है । (९, १०, ११) महन्भन, पइभव, अतिभप्र—'अप्पेगे हिंसिंसु मे त्ति वा वहंति, अप्पेगे हिंसंति मे त्ति वा वहंति, अप्पेगे हिंसिस्संत्ति मेत्ति वा वहंति, (आचारांग १ । ७ । ५२) अर्थात् कोई यह सोच कर हिंसा करते हैं कि इसने मेरी या मेरे संबंधी की हिंसा की थी या यह मेरी हिंसा करता है अथवा मेरी हिंसा करेगा। तात्पर्य यह है कि हिंसा की पष्ठभमि प्रतीकार के अतिरिक्त भय भी प्रबल कारण है । हिंसा की प्रक्रिया में हिंसक भयभीत रहता है । हिंस्य भयभीत होता है । हिंसा कृत्य को देखनेवाले दर्शक भी भयभीत होते हैं । हिंसा में भय व्याप्त है । हिंसा भय का हेतु होने के कारण उसे महाभयरूप माना है । 'महाभयहेतुत्वात् महाभयः।' (ज्ञानविमलसूरि प्र. त्या.) __हिंसा प्रत्येक प्राणी के लिए भय का कारण है । अतएव प्रतिभय है-'प्रतिप्राणि-भयनिमित्तस्वात् ।' हिंसा प्राणवध (मृत्यु) स्वरूप है। प्राणिमात्र को मृत्युभय से बढ़कर अन्य कोई भय नहीं। अतिभयं-'एतस्मात् अन्यत् भयं नास्ति, 'मरणसमं नत्थि भयमिति' वचनात् अर्थात् मरण से अधिक या मरण के समान अन्य कोई भय नहीं है। (१२) वोहणप्रो-भय उत्पन्न करने वाला। (१३) त्रासनक-दूसरों को त्रास या क्षोभ उत्पन्न करने वाली है। (१४) अन्याय्य-नीतियुक्त न होने के कारण वह अन्याय्य है। (१५) उद्व जनक-हृदय में उद्वेग--घबराहट उत्पन्न करने वाली । (१६) निरपेक्ष–हिंसक प्राणी अन्य के प्राणों की अपेक्षा–परवाह नहीं करता–उन्हें तुच्छ समझता है । प्राणहनन करना उसके लिए खिलवाड़ होता है । अतएव उसे निरपेक्ष कहा गया है। (१७) निर्द्धर्म-हिंसा धर्म से विपरीत है। भले ही वह किसी लौकिक कामना की पूर्ति के लिये, सद्गति की प्राप्ति के लिए अथवा धर्म के नाम पर की जाए, प्रत्येक स्थिति में वह अधर्म है, धर्म से विपरीत है । 'हिंसा नाम भवेद्धर्मो न भूतो न भविष्यति ।' अर्थात् हिंसा त्रिकाल में भी धर्म नहीं हो सकती।
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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