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पद्मावती
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पत्र पाते ही श्रीकृष्ण ने तदनुसार सब तैयारी कर ली। ठीक समय पर पूजा की सामग्री से सुसज्जित थालों को लिये मंगलगीत गाती हुई रुक्मिणी अपनी सखियों के साथ महल से निकली। नगर के द्वार पर राजा शिशुपाल के पहरेदारों ने यह कह कर रोक दिया कि-"ठहरो ! राजा की प्राज्ञा किसी को बाहर जाने देने की नहीं है।" रुक्मिणो की सखियों ने उनसे कहा-"हमारी सखी शिशुपाल की शुभकामना के लिये कामदेव की पूजा करने जा रही है। तुम इस मंगलकार्य में क्यों विघ्न डाल रहे हो ? खबरदार ! यदि तुम इस शुभकार्य में बाधा डालोगे तो इसका बुरा परिणाम तुम्हें भोगना पड़ेगा। तुम कैसे स्वामिभक्त हो कि अपने स्वामी के हित में बाधा डालते हो !" द्वाररक्षकों ने यह सुन कर खुशी से उन्हें बाहर जाने दिया। रुक्मिणी अपनी सखियों और बुमा सहित मानन्दोल्लास के साथ कामदेवमन्दिर में पहुँची। परन्तु वहाँ किसी को न देखकर व्याकुल हो गई।
उसने प्रार्त स्वर में प्रार्थना की। श्रीकृष्ण और बलदेव दोनों एक अोर छिपे रुक्मिणी की भक्ति और अनुराग देख रहे थे। यह सब देख-सुन कर वे सहसा रुक्मिणी के सामने आ उपस्थित हुए। लज्जा के मारे रुक्मिणी सिकुड़ गई और पीपल के पत्ते के समान थर-थर काँपने लगी। श्रीकृष्ण को चुपचाप खड़े देख बलदेवजी ने कहा-"कृष्ण ! तुम बुत-से खड़े क्या देख रहे हो ! क्या लज्जावती ललना प्रथम दर्शन में अपने मुंह से कुछ बोल सकती है ?"
___इतना सुनते ही कृष्ण ने कहा-"पायो प्रिये ! चिरकाल से तुम्हारे वियोग में दुःखित कृष्ण यही है।" यों कह कर रुक्मिणी का हाथ पकड़ कर उसे सुसज्जित रथ में बैठा लिया। कुडिनपुर के बाहर रथ के पहुँचते ही उन्होंने पांचजन्य शंख का नाद किया, जिससे नागरिक एवं सैनिक काँप उठे।
___ इधर रुक्मिणी की सखियों ने शोर मचाया कि रुक्मिणी का हरण हो गया है। इसके बाद श्रीकृष्ण ने जोर से ललकारते हए कहा-'ए शिशपाल ! मैं द्वारिकापति कृष्ण तेरे अानन्द की केन्द्र रुक्मिणी को ले जा रहा हूँ। अगर तुझ में कुछ भी सामर्थ्य हो तो छुड़ा ले।' इस ललकार को सुनकर शिशुपाल और रुक्मी के कान खड़े हुए। वे दोनों क्रोधावेश में अपनी-अपनी सेना लेकर संग्राम करने के लिए रणांगण में उपस्थित हुए। मगर श्रीकृष्ण और बलदेव दोनों भाइयों ने सारी सेना को कुछ ही देर में परास्त कर दिया। शिशुपाल को उन्होंने जीवनदान दिया। शिशुपाल हार कर लज्जा से मुह नीचा किए वापिस लौट गया । रुक्मी की सेना तितर-बितर हो गई और उसकी दशा भी बड़ी दयनीय हो गई। अपने भाई को दयनीय दशा में देखकर रुक्मिणी ने प्रार्थना की मेरे भैया को प्राणदान दिया जाय । श्रीकृष्ण ने हंस कर कहा--'ऐसा ही होगा।' रुक्मी को उन्होंने पकड़ कर रथ के पीछे बांध रखा था, रुक्मिणी के कहने पर छोड़ दिया। दोनों वीर बलराम और श्रीकृष्ण विजयश्री सहित रुक्मिणी को लेकर अपनी राजधानी द्वारिका में पाए और वहीं श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी के साथ विधिवत् विवाह किया। पद्मावती
भारतवर्ष में अरिष्ट नामक नगर था। वहाँ बलदेव के मामा हिरण्यनाभ राज्य करते थे। उनके पद्मावती नाम की एक कन्या थी । सयानी होने पर राजा ने उसके स्वयंवर के लिये बलराम और कृष्ण आदि तथा अन्य सब राजाओं को आमंत्रित किया। स्वयंवर का निमंत्रण पाकर बलराम और श्रीकृष्ण तथा दूसरे अनेक राजकुमार अरिष्टनगर पहुँचे ।