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{ प्रश्नव्याकरणसूत्र : कथाएँ
घटना श्राद्योपान्त कह मुनाई । तदनन्तर श्रीकृष्ण ने राजा भीष्म से रुक्मिणी के लिये याचना की । राजा भीष्म तो इससे सहमत हो गए, लेकिन रुक्मी इसके विपरीत था । उसने इन्कार कर दिया कि, "मैं तो शिशुपाल के लिये अपनी बहन को देने का संकल्प कर चुका हूँ ।" रुक्मी ने श्रीकृष्ण के निवेदन पर कोई ध्यान नहीं दिया और माता-पिता की अनुमति की भी परवाह नहीं की । उसने सबकी बात को ठुकरा कर शिशुपाल राजकुमार के साथ अपनी बहन रुक्मिणी के विवाह का निश्चय कर लिया । शिशुपाल को वह बड़ा प्रतापी और तेजस्वी तथा भू-मंडल में बेजोड़ बलवान् मानता था । रुक्मी ने शिशुपाल के साथ अपनी बहिन की शादी की तिथि निश्चित कर ली । शिशुपाल भी बड़ी भारी बरात ले कर सजधज के साथ विवाह के लिये कुडिनपुर की ओर चल पड़ा। अपने नगर से निकलते ही उसे अमंगलसूचक शकुन हुए, किन्तु शिशुपाल ने कोई परवाह न
। वह विवाह के लिये चल ही दिया । कुडिनपुर पहुँचकर नगर के बाहर वह एक उद्यान में ठहरा । उधर रुक्मिणी नारदजी से आशीर्वाद प्राप्त कर और श्रीकृष्ण के गुण सुन कर उनसे प्रभावित हो गई थी । फलतः मन ही मन उन्हें पति रूप में स्वीकृत कर चुकी थी । वह यह सुनकर अत्यन्त दु:खी हुई कि भाई रुक्मी ने उसकी व पिताजी की इच्छा के विरुद्ध हठ करके शिशुपाल को विवाह के लिये बुला लिया है और वह बारात सहित उद्यान में आ भी पहुँचा है । रुक्मिणी को उसकी बुना बहुत प्यार करती थी । उसने रुक्मिणी को दुःखित और संकटग्रस्त देखकर उसे प्राश्वासन दिया और श्रीकृष्णजी को एक पत्र लिखा - " जनार्दन ! रुक्मिणी के लिये इस समय तुम्हारे सिवाय कोई शरण नहीं है । यह तुम्हारे प्रति अनुरक्त है और अहर्निश तुम्हारा ही ध्यान करती है । उसने यह संकल्प कर लिया है कि कृष्ण के सिवाय संसार के सभी पुरुष मेरे लिये पिता या भाई के समान हैं। अत: तुम ही एकमात्र इसके प्राणनाथ हो ! यदि तुमने समय पर आने की कृपा न की तो रुक्मिणी को इस संसार में नहीं पाओगे और एक निरपराध प्रबला की हत्या का अपराध आपके सिर लगेगा । अतः इस पत्र के मिलते ही प्रस्थान करके निश्चित समय से पहले ही रुक्मिणी को दर्शन दें । '
इस आशय का करुण एवं जोशीला पत्र लिख कर बुझा ने एक शीघ्रगामी दूत द्वारा श्रीकृष्णजी के पास द्वारिका भेजा । दूत पवनवेग के समान द्वारिका पहुँचा और वह पत्र श्रीकृष्ण के हाथ में दिया । पत्र पढ़ते ही श्रीकृष्ण को हर्ष से रोमांच हो उठा और क्रोध से उनकी भुजाएँ फड़क उठीं । वे अपने आसन से उठे और अपने साथ बलदेव को लेकर शीघ्र कुडिनपुर पहुँचे । वहाँ नगर के बाहर गुप्तरूप से एक बगीचे में ठहरे। उन्होंने अपने आने की एवं स्थान की सूचना गुप्तचर द्वारा रुक्मिणी और उसकी बुआ को दे दी । वे दोनों इस सूचना को पाकर प्रतीव हर्षित हुईं।
रुक्मिणी के विवाह में कोई अड़चन पैदा न हो, इसके लिये रुक्मी और शिशुपाल ने नगर के चारों ओर सभी दरवाजों पर कड़ा पहरा लगा दिया था। नगर के बाहर और भीतर सुरक्षा का भी पूरा प्रबन्ध कर रखा था। लेकिन होनहार कुछ और ही थी ।
रुक्मिणी की बुआ इस पेचीदा समस्या को देख कर उलझन में पड़ गई । भाखिर उसे एक विचार सूझा । उसने श्रीकृष्णजी को उसी समय पत्र द्वारा सूचित किया - "हम रुक्मिणी को साथ लेकर कामदेव की पूजा के बहाने कामदेव के मन्दिर में आ रही हैं और यही उपयुक्त अवसर हैरुक्मिणी के हरण का । इसलिए आप इस स्थान पर सुसज्जित रहें ।'