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प्रश्नव्याकरणसूत्र : अ. २, अ. ५
३१. सिद्धादिगुण - सिद्ध भगवान् में आदि से अर्थात् सिद्धावस्था के प्रथम समय से ही उत्पन्न होने वाले या विद्यमान रहने वाले गुण सिद्धादिगुण कहलाते हैं । 'सद्धाइगुण' पद का अर्थ 'सिद्धातिगुण' होता है, जिनका तात्पर्य है-- सिद्धों के प्रात्यन्तिक गुण । ये इकतीस हैं- (१-५) मतिज्ञानावरणीय आदि पांच प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय ( ६-१४) नौ प्रकार के दर्शनावरण का क्षय (१५-१६) सातावेदनीय असातावेदनीय का क्षय ( १७ ) दर्शनमोहनीय का क्षय (१८) चारित्रमोहनीय का क्षय ( १९-२२) चार प्रकार के आयुष्कर्म का क्षय ( २३-२४) दो प्रकार के गोत्रकर्म का क्षय ( २५-२६) शुभनामकर्म और अशुभनामकर्म का क्षय ( २७-३१) पाँच प्रकार के अन्तराय कर्म का क्षय ।
प्रकारान्तर से इकतीस गुण इस प्रकार हैं- पाँच संस्थानों, पाँच वर्णों, पाँच रसों, दो गन्धों, आठ स्पर्शो और तीन वेदों (स्त्री वेद-पुरुषवेद - नपुंसक वेद ) से रहित होने के कारण २८ गुण तथा अकायता, असंगता और रूपित्व, ये तीन गुण सम्मिलित कर देने पर सब ३१ गुण होते हैं ।
३२. योगसंग्रह - मन, वचन और काय की प्रशस्त प्रवृत्तियों का संग्रह योगसंग्रह कहलाता है । यह बत्तीस प्रकार का है - ( १ ) आलोचना - प्राचार्यादि के समक्ष शिष्य द्वारा प्रकट किए हुए दोष थार्थ रूप से निष्कपट भाव से प्रकट करना । २) निरपलाप - शिष्य द्वारा प्रकट किए हुए दोषों को प्राचार्यादि किसी अन्य के समक्ष प्रकट न करे । ( ३ ) आपत्ति पड़ने पर भी धर्म में दृढ़ता रखना (४) विना किसी का सहारा लिए तपश्चर्या करना ( ५ ) प्राचार्यादि से सूत्र और उसके अर्थ आदि को ग्रहण करना ( ६ ) शरीर का श्रृंगार न करना ( ७ ) अपनी तपश्चर्या या उग्र क्रिया को प्रकाशित न करना (८) निर्लोभ होना (९) कष्ट सहिष्णु होना - परीषहों को समभाव से सहन करना (१०) आर्जव - सरलता - निष्कपटभाव होना (११) शुचिता - सत्य होना (१२) दृष्टि सम्यक् रखना (१३) समाधि - चित्त को समाहित रखना ( १४) पाँच प्रकार के प्रचार का पालन करना (१५) विनीत होकर रहना (१६) धयैवान् होना- धर्मपालन में दीनता का भाव न उत्पन्न होने देना (१७) संवेगयुक्त रहना (१८) प्रणिधि अर्थात् मायाचार न करना (१९) समीचीन आचार व्यवहार करना (२०) संवर - ऐसा आचरण करना जिससे कर्मों का प्रस्रव रुक जाए (२१) श्रात्मदोषोपसंहार — अपने में उत्पन्न होने वाले दोषों का निरोध करना (२२) काम-भोगों से विरत रहना (२३) मूल गुणों संबंधी प्रत्याख्यान करना (२४) उत्तर गुणों से संबंधित प्रत्याख्यान करना - विविध प्रकार के नियमों को अंगीकार करना (२५) व्युत्सर्ग- शरीर, उपधि तथा कषायादि का उत्सर्ग करनात्यागना (२६) प्रमाद का परिहार करना (२७) प्रतिक्षण समाचारी का पालन करना ( २८ ) ध्यानरूप संवर की साधना करना (२९) मारणान्तिक कष्ट के अवसर पर भी चित्त में क्षोभ न होना (३०) विषयासक्ति से बचे रहना ( ३९ ) अंगीकृत प्रायश्चित्त का निर्वाह करना या दोष होने पर प्रायश्चित्त लेना और (३२) मृत्यु का अवसर सन्निकट आने पर संलेखना करके अन्तिम प्राराधना
करना ।
३३. अशातनाएँ निम्नलिखित हैं
(१) शैक्ष - नवदीक्षित या अल्प दीक्षापर्याय वाले साधु का रात्निक - अधिक दीक्षा पर्या वाले साधु के प्रति निकट होकर गमन करना ।
(२) शैक्ष का रानिक साधु के आगे-आगे गमन करना ।