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उत्क्षेप]
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अर्थ है - आचारांगसूत्र के दोनों अर्थ है - निशीथसूत्र के तीन
२८. प्रकल्प - प्राचार प्रकल्प २८ हैं । यहाँ प्रचार का श्रुतस्कन्धों के अध्ययन, जिनकी संख्या पच्चीस है और प्रकल्प का अध्ययन – उद्घातिक अनुद्घातिक और प्रारोपणा । ये सब मिलकर २८ हैं ।
२९. पापश्रुतप्रसंग के २९ भेद इस प्रकार हैं- ( १ ) भौम (२) उत्पात ( ३ ) स्वप्न ( ४ ) अन्तरिक्ष (५) अंग (६) स्वर (७) लक्षण (८) व्यंजन । इन आठ प्रकार के निमित्तशास्त्रों के सूत्र, वृत्ति और वार्तिक के भेद से २४ भेद हो जाते हैं । इनमें विकथानुयोग, विद्यानुयोग, मंत्रानुयोग, योगानुयोग और अन्यतीर्थिक प्रवृत्तानुयोग- इन पाँच को सम्मिलित करने पर पापश्रुत के उनतीस भेद होते हैं । मतान्तर से अन्तिम पाँच पापश्रुतों के स्थान पर गन्धर्व, नाट्य, वास्तु, चिकित्सा और धनुर्वेद का उल्लेख मिलता है।' इनका विवरण अन्यत्र देख लेना चाहिए ।
३०.
मोहनीय अर्थात् मोहनीयकर्म के बन्धन के तीस स्थान- कारण इस प्रकार हैं - ( १ ) जल में डूबाकर त्रस जीवों का घात करना (२) हाथ आदि से मुख, नाक आदि बन्द करके मारना (३) गीले चमड़े की पट्टी कस कर मस्तक कर बाँध कर मारना (४) मस्तक पर मुद्गर श्रादि का प्रहार करके मारना ( ५ ) श्रेष्ठ पुरुष की हत्या करना (६) शक्ति होने पर भी दुष्ट परिणाम के कारण रोगी की सेवा न करना ( ७ ) तपस्वी साधक को बलात् धर्मभ्रष्ट करना (८) अन्य के सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग रूप शुद्ध परिणामों को विपरीत रूप में परिणत करके उसका अपकार करना ( ९ ) जिनेन्द्र भगवान् की निन्दा करना (१०) प्राचार्य - उपाध्याय की निन्दा करना (११) ज्ञानदान आदि से उपकारक आचार्य आदि का उपकार न मानना एवं उनका यथोचित सम्मान न करना ( १२ ) पुनः पुनः राजा के प्रयाण के दिन आदि का कथन करना (१३) वशीकरणादि का प्रयोग करना (१४) परित्यक्त भोगों की कामना करना (१५) बहुश्रुत न होने पर भी अपने को बहुश्रुत कहना (१६) तपस्वी न होकर भी अपने को तपस्वी के रूप में विख्यात करना ( १७ ) बहुत जनों को बढ़िया मकान आदि में बन्द करके श्राग लगाकर मार डालना (१८) अपने पाप को पराये सिर मढ़ना (१९) मायाजाल रच कर जनसाधारण को ठगना ( २० ) अशुभ परिणामवश सत्य को भी सभा में बहुत लोगों के समक्ष - प्रसत्य कहना (२१) वारंवार कलह - लड़ाई-झगड़ा करना (२२) विश्वास में लेकर दूसरे का धन हड़प जाना ( २३ ) विश्वास उत्पन्न कर परकीय स्त्री को अपनी और प्राकृष्ट करना - लुभाना (२४) कुमार - प्रविवाहित न होने पर भी अपने को कुमार कहना (२५) ब्रह्मचारी होकर भी अपने को ब्रह्मचारी कहना (२६) जिसकी सहायता से वैभव प्राप्त किया उसी उपकारी के द्रव्य पर लोलुपता करना (२७) जिसके निमित्त से ख्याति अर्जित की उसी के काम में विघ्न डालना ( २८ ) राजा, सेनापति अथवा इसी प्रकार के किसी राष्ट्रपुरुष का वध करना (२९) देवादि का साक्षात्कार न होने पर भी साक्षात्कार - दिखाई देने की बात कहना और (३०) देवों की प्रवज्ञा करते हुए स्वयं को देव कहना । इन कारणों से मोहनीयकर्म का बन्ध होता है ।
१. टीकाकार ने पापश्रुत की गणना के लिये यह गाथा उद्धृत की है—
अगनिमित्ताइं दिव्वुप्पायंतलिक्ख भोमं च ।
अंग सर लक्खण वंजणं च तिविहं पुणोक्वेक्कं ॥ सुत्तं वित्ती तह वत्तियं च पावसुयमउणतीसविहं । गंधव्व नदृवत्थु उं धणुवेयसंजुतं ॥
-- श्रभय. टीका. पृ. १४५