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[प्रश्नव्याकरणसूत्र : शु. २, अ.५
बावीसं परिसहा य। तेवीसए सूयगडज्झयणा। चउवीसविहा देवा। पण्णवीसाए भावणा। छव्वीसा दसाकप्पववहाराणं उद्देसणकाला। सत्तावीसा अणगारगुणा। अट्ठावीसा पायारकप्पा। एगुणतीसा पावसुया। तोसं मोहणीयढाणा। एगतीसाए सिद्धाइगुणा। बत्तीसा य जोगसंग्गहे। तित्तीसा पासायणा।
एक्काइयं करित्ता एगुत्तरियाए वुडीए तीसानो जाव उ भवे तिगाहिया विरइपणिहासु य एवमाइसु बहुसु ठाणेसु जिणपसत्थेसु अवितहेसु सासयभावेसु अवट्ठिएसु संकं कंखं णिराकरित्ता सद्दहए सासणं भगवनो अणियाणे अगारवे अलुद्धे अमूढमणवयणकायगुत्ते।
१५४--श्री सुधर्मा स्वामी ने अपने प्रधान अन्तेवासी जम्बू को संबोधन करते हुए कहाहे जम्बू ! जो मूर्छा–ममत्वभाव से रहित है, इन्द्रियसंवर तथा कषायसंवर से युक्त है एवं प्रारम्भपरिग्रह से तथा क्रोध, मान, माया और लोभ से रहित है, वही श्रमण या साधु होता है ।
१. अविरति रूप एक स्वभाव के कारण अथवा भेद की विवक्षा न करने पर असंयम सामान्य रूप से एक है।
२. इसी प्रकार संक्षेप विवक्षा से बन्धन दो प्रकार के हैं-रागबन्धन और द्वेषबन्धन ।
३. दण्ड तीन हैं- मनोदण्ड, वचनदण्ड, कायदण्ड । गौरव तीन प्रकार के हैं-ऋद्धिगौरव, रसगौरव, सातागौरव, । गुप्ति तीन प्रकार को है-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति । विराधना तीन प्रकार की है--ज्ञान की विराधना, दर्शन की विराधना और चारित्र की विराधना ।
४. कषाय चार हैं—क्रोध, मान, माया, लोभ । ध्यान चार हैं-प्रार्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लध्यान । संज्ञा चार प्रकार की है—आहार संज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा । विकथा चार प्रकार की है-स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा और देशकथा ।
५. क्रियाएँ पाँच हैं—कायिकी, प्राधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी । समितियाँ पाँच हैं-ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान-निक्षेपणसमिति और परिष्ठापनिकासमिति । इन्द्रियां पाँच हैं-स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय और श्रोत्रेन्द्रिय । महाव्रत पाँच हैं-अहिंसामहाव्रत, सत्यमहाव्रत, अस्तेयमहाव्रत, ब्रह्मचर्यमहाव्रत और