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________________ सहायक न बने और उपसंहार] [२२९ इसके विपरीत जिह्वालोलुप सरस, स्वादिष्ट एवं पौष्टिक भोजन करने वाला इस व्रत का सम्यक् प्रकार के पालन नहीं कर सकता । अतएव इस भावना में दूध, दही, घृत, नवनीत, तेल, गुड़, खाँड, मिश्री आदि के भोजन के त्याग का विधान किया गया है । मधु, मांस एवं मदिरा, ये महाविकृतियाँ हैं, इनका सर्वथा परित्याग तो अनिवार्य ही है । तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचारी पुरुष को ऐसा नीरस, रूखा-सूखा एवं सात्त्विक भोजन ही करना चाहिए जो वासना के उद्रेक में सहायक न जिससे संयम का भलीभाँति निर्वाह भी हो जाए। ____दर्पकारी भोजन के परित्याग के साथ शास्त्रकार ने यह भी स्पष्ट किया है कि ब्रह्मचारी को अतिमात्रा में (खद्ध (खद्ध-प्रचुर) और प्रतिदिन लगातार भी भोजन नहीं करना चाहिए। इस सम्बन्ध में कहा है जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे, समारुयो गोवसमं उवेति । एवंदियग्गीवि पकामभोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्सइ ।। अर्थात—जैसे जंगल में प्रचुर ईंधन प्राप्त होने पर पवन की सहायता प्राप्त दावानल शान्त नहीं होता, उसी प्रकार प्रकामभोजी–खूब आहार करने वाले किसी भी ब्रह्मचारी की इन्द्रिय-अग्नि उसके लिए हितकर नहीं है अर्थात् वह उसके ब्रह्मचर्य की विघातक होती है। ___इस प्रकार ब्रह्मचारी को हित-भोजन के साथ मित-भोजन ही करना चाहिए और वह भी लगातार प्रतिदिन नहीं करना चाहिए, अर्थात् बीच-बीच में अनशन करके निराहार भी रहना चाहिए। जो साधक इन भावनात्रों का अनुपालन भलीभाँति करता है, उसका ब्रह्मचर्यव्रत अक्षुण्ण रह सकता है। यहाँ एक स्पष्टीकरण आवश्यक है। आगम पुरुष की प्रधानता को लक्ष्य में रखकर विरचित होते हैं । इस कारण यहाँ ब्रह्मचारी पुरुष को स्त्रीसंसर्ग, स्त्रीकथा, स्त्री के अंगोपांगों के निरीक्षण आदि के वर्जन का विधान किया गया है। किन्तु नारी साधिका--ब्रह्मचारिणी के लिए पुरुषसंसर्ग, पुरुषकथा आदि का वर्जन समझ लेना चाहिए । नपुसकों की चेष्टानों का अवलोकन ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी दोनों के लिए समान रूप से वजित है। उपसंहार १५३- एवमिणं संवरस्स दारं सम्मं संवरियं होइ सुत्पणिहियं इमेहिं पंचहि वि कारणेहि मण-वयण-काय-परिरक्खिएहिं । णिच्चं आमरणंतं च ऐसो जोगो यन्वो धिइमया मइमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिस्सावी असंकिलिट्ठी सव्वजिणमणुण्णाप्रो । एवं चउत्थ संवरदारं फासियं पालियं सोहियं तीरियं किट्टियं पाराहियं प्राणाए अणुपालियं भवइ । एवं णायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्ध सिद्ध सिद्धवरसासणमिणं प्रायवियं सुदेसियं पसत्थं । तिबेमि ॥ ॥ चउत्थं संवरदारं समत्तं ॥
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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