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२१. संघयणे चैव वज्जरिसहे । २२. संठाणे चेव समचउरंसे ।
२३. झाणेसु य परमसुक्कज्झाणं । २४. जाणेसु य परमकेवलं तु पसिद्धं ।
२५. लेसासु य परमसुक्कलेस्सा । २६. तित्थयरे चैव जहा मुणीणं । २७. वासेसु जहा महाविदेहे ।
२८. गिरिराया चेव मंदरवरे ।
[ प्रश्नव्याकरणसूत्र : अ. २, अ. ४
२९. वणेसु जहा णंदणवणं पवरं ।
३०. दुमेसु जहा जंबू, सुदंसणा विस्सुयजसा जीए णामेण य प्रयं दीवो ।
३१. तुरगवेई गवई रहवई णरवई जह वीसुए चेव राया ।
३२. रहिए चेव जहा महारहगए ।
एवमणेगा गुणा ग्रहीणा भवंति एग्गम्मि बंभचेरे । जम्मि य आराहियम्मि प्राराहियं वयमिणं सव्वं सीलं तवो य विणश्रो य संजमो य खंती गुत्ती मुत्ती तहैव इहलोइय पारलोइयजसे य कित्ती य पच्चय, तम्हा णिहुएण बंभचेरं चरियव्वं सव्वश्रो विसुद्ध जावज्जीवाए जाव सेयट्ठिसंजय त्ति एवं भणियं वयं भगवया ।
१४२ - ब्रह्मचर्य की बत्तीस उपमाएँ इस प्रकार हैं
१. जैसे ग्रहगण, नक्षत्रों और तारागण में चन्द्रमा प्रधान होता है, उसी प्रकार समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्य प्रधान है ।
२. मणि, मुक्ता, शिला, प्रवाल और लाल ( रत्न) की उत्पत्ति के स्थानों (खानों) में समुद्र प्रधान है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य सर्व व्रतों का श्रेष्ठ उद्भवस्थान है ।
३. इसी प्रकार ब्रह्मचर्य मणियों में वैडूर्यमणि के समान उत्तम है ।
४. आभूषणों में मुकुट के समान है ।
५. समस्त प्रकार के वस्त्रों में क्षौमयुगल--- कपास के वस्त्रयुगल के सदृश है ।
६. पुष्पों में श्रेष्ठ अरविन्द – कमलपुष्प के समान है ।
७. चन्दनों में गोशीर्ष चन्दन के समान है ।
८. जैसे ओषधियों - चामत्कारिक वनस्पतियों का उत्पत्तिस्थान हिमवान् पर्वत है, उसी प्रकार श्रमशधि आदि (लब्धियों) की उत्पत्ति का स्थान ब्रह्मचर्य है ।
९. जैसे नदियों में शीतोदा नदी प्रधान है, वैसे ही सब व्रतों में ब्रह्मचर्य प्रधान है ।
१०. समस्त समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र जैसे महान् है, उसी प्रकार व्रतों में ब्रह्मचर्य महत्त्वशाली है ।
११. जैसे माण्डलिक अर्थात् गोलाकार पर्वतों में रुचकवर ( तेरहवें द्वीप में स्थित ) पर्वत प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य प्रधान है ।