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[प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. २, अ. ४ अर्थात् निपूते-पुत्रहीन पुरुष को सद्गति प्राप्त नहीं होती । स्वर्ग तो कदापि मिल ही नहीं सकता । अतएव पुत्र का मुख देख कर—पहले पुत्र को जन्म देकर पश्चात् यतिधर्म का आचरण करना।
वस्तुतः यह कथन किसी मोहग्रस्त पिता का अपने कुमार पुत्र को संन्यास ग्रहण करने से विरत करने के लिए है। 'चरिष्यसि' इस क्रियापद से यह आशय स्पष्ट रूप से ध्वनित होता है। यह किसी सम्प्रदाय या परम्परा का सामान्य विधान नहीं है, अन्यथा 'चरिष्यसि' के स्थान पर 'चरेत्' अथवा इसी अर्थ को प्रकट करने वाली कोई अन्य क्रिया होती।
इसके अतिरिक्त जिस परम्परा से इसका सम्बन्ध जोड़ा जाता है, उसी परम्परा में यह भी मान्य किया गया है
अनेकानि सहस्राणि, कुमारब्रह्मचारिणाम् ।
दिवं गतानि विप्राणामकृत्वा कुलसन्ततिम् ।। अर्थात् कुमार-अविवाहित ब्रह्मचारी सहस्रों की संख्या में कुल-सन्तान (पुत्र आदि) उत्पन्न किए विना ही स्वर्ग में गए हैं ।
तात्पर्य यह है कि स्वर्गप्राप्ति के लिए पुत्र को जन्म देना आवश्यक नहीं है । स्वर्ग प्राप्ति यदि पुत्र उत्पन्न करने से होती हो तो वह बड़ो सस्ती, सुलभ और सुसाध्य हो जाए ! फिर तो कोई विरला ही स्वर्ग से वंचित रहे !
सम्भव है 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' यह प्रवाद उस समय प्रचलित हुआ हो जब श्राद्ध करने की प्रथा चालू हुई । उस समय भोजन लोलुप लोगों ने यह प्रचार प्रारम्भ किया कि पुत्र अवश्य उपन्न करना चाहिए । पुत्र न होगा तो पितरों का श्राद्ध कौन करेगा ! श्राद्ध नहीं किया जाएगा तो पितर भूखे-प्यासे रहेंगे और श्राद्ध में भोजन करने वालों को उत्तम खीर आदि से वंचित रहना पड़ेगा।
किन्तु यह लोकप्रवाद मात्र है। मृतक जन अपने-अपने किये कर्म के अनुसार स्वर्ग-नरक आदि गतियाँ प्राप्त कर लेते हैं। अतएव श्राद्ध में ब्राह्मणों को खिलाने-पिलाने का उनके सुख-दुःख पर किंचित् भी प्रभाव नहीं पड़ता।
ब्रह्मचर्य उत्तमोत्तम धर्म है और वह प्रत्येक अवस्था में आचरणीय है । आहत परम्परा में तथा भारतवर्ष की अन्य परम्पराओं में भी ब्रह्मचर्य की असाधारण महिमा का गान किया गया है । और अविवाहित महापुरुषों के प्रव्रज्या एवं संन्यास ग्रहण करने के अगणित उदाहरण उपलब्ध हैं ।
जिनमत में अन्य व्रतों में तो अपवाद भी स्वीकार किए गए हैं किन्तु ब्रह्मचर्य व्रत निरपवाद कहा गया है
न वि किंचि अणुण्णायं, पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहिं । मोत्तु मेहुणभावं, न तं विना रागदोसेहिं ।।