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________________ २०८] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. २, अ. ३ के निमित्त जिसके लिए हिंसा की जाए, ऐसे आधाकर्म की बहुलता वाले, आसिक्त-जल के छिड़काव वाले, संमाजित-बुहारी से साफ किए हुए, उसिक्त—पानी से खूब सींचे हुए, शोभित-सजाए हुए, छादन-डाभ आदि से छाये हुए, दूमन--कलई आदि से पोते हुए, लिम्पन-गोबर आदि से लीपे हुए, अनुलिपन-लीपे को फिर लीपा हो, ज्वलन-अग्नि जलाकर गर्म किये हुए या प्रकाशित किए हुए, भाण्डों-सामान को इधर-उधर हटाए हुए अर्थात् जिस साधु के लिए कोई सामान इधर-उधर किया गया हो और जिस स्थान के अन्दर या बाहर (समीप में) जीवविराधना होती हो, ये सब जहाँ साधुओं के निमित्त से हों, वह स्थान-उपाश्रय साधुओं के लिए वर्जनीय है । ऐसा स्थान शास्त्र द्वारा निषिद्ध है। इस प्रकार विविक्त–निर्दोष वास स्थान में वसतिरूप समिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला मुनि सदैव दुर्गति के कारण पापकर्म के करने और करवाने से निवृत्त होताबचता है तथा दत्त-अनुज्ञात अवग्रह में रुचि वाला होता है। द्वितीय भावना : निर्दोष संस्तारक १३६-बिइयं पाराम-उज्जाण-काणण-वणप्पदेसभागे जं किंचि इक्कडं च कठिणगं च जंतुगं च परामेरकुच्च-कुस-डब्भ-पलाल-मूयग-वल्लय-पुप्फ-फल-तय-प्पवाल-कंद-मूल-तण-कट्ठ-सक्कराइ गिण्हइ सेज्जोवहिस्स अट्ठा ण कप्पए उग्गहे अदिण्णम्मि गिहिउं जे हणि हणि उग्गहं अणुण्णवियं गिहियव्वं । एवं उग्गहसमिइजोगेण भाविप्रो भवइ अंतरप्पा णिच्चं अहिगरण-करण-कारावण-पावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई। १३६-दूसरी भावना निर्दोष संस्तारकग्रहण संबंधी है । पाराम, उद्यान, कानननगरसमीपवर्ती वन और वन-नगर से दूर का वनप्रदेश आदि स्थानों में जो कुछ भी (अचित्त) इक्कड जाति का घास तथा कठिन-घास की एक जाति, जन्तुक-पानी में उत्पन्न होने वाला घास, परा नामक घास, मेरा-मज के तन्तु, कर्च-कची बनाने योग्य घास, कुश, डाभ, पलाल, मूयक नामक घास, वल्वज घास, पुष्प, फल, त्वचा, प्रवाल, कन्द, मूल, तृण, काष्ठ और शर्करा आदि द्रव्य संस्तारक रूप उपधि के लिए अथवा संस्तारक एवं उपधि के लिए ग्रहण करता है तो इन उपाश्रय के भीतर की ग्राह्य वस्तुओं को दाता द्वारा दिये विना ग्रहण करना नहीं कल्पता । तात्पर्य यह है कि उपाश्रय की अनुज्ञा ले लेने पर भी उपाश्रय के भीतर की घास आदि लेना हो तो उनके लिए पृथक् रूप से अनुज्ञा प्राप्त करना चाहिए। उपाश्रय की अनुज्ञा प्राप्त कर लेने मात्र से उसमें रखी अन्य तृण आदि वस्तुओं के लेने की अनुज्ञा ले ली, ऐसा नहीं मानना चाहिए। ___ इस प्रकार अवग्रहसमिति के योग से भावित अन्तःकरण वाला साधु सदा दुर्गति के कारणभूत पाप-कर्म के करने और कराने से निवृत्त होता-बचता है और दत्त-अनुज्ञात अवग्रह की रुचि वाला होता है। तृतीय भावना : शय्या-परिकर्म वर्जन १३७ तइयं-पीढफलगसिज्जासंथारगट्टयाए रुक्खा ण छिदियव्वा, ण छेयणेण भेयणेण सेज्जा कारियव्वा, जस्सेव उवस्सए वसेज्ज सेज्जं तत्थेव गवेसिज्जा, ण य विसमं समं करेज्जा, ण णिवाय
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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