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अस्तेय व्रत की पांच भावनाएँ]
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के लिए भगवान् तीर्थंकर देव ने यह प्रवचन समीचीन रूप से कहा है। यह प्रवचन प्रात्मा के लिए हितकारी है, आगामी भव में शुभ फल प्रदान करने वाला और भविष्यत् में कल्याणकारी है। यह प्रवचन शुद्ध है, न्याय-युक्ति-तर्क से संगत है, अकुटिल-मुक्ति का सरल मार्ग है, सर्वोत्तम है तथा समस्त दुःखों और पापों को निश्शेष रूप से शान्त कर देने वाला है।
विवेचन-प्रस्तुत पाठ में अस्तेयव्रत संबंधी भगवत्प्रवचन की महिमा बतलाई गई है। साथ ही व्रत के पालनकर्ता को प्राप्त होने वाले फल का भी निर्देश किया गया है । आशय स्पष्ट है । अस्तेय व्रत की पाँच भावनाएँ
१३४--तस्स इमा पंच भावणाम्रो होंति परदव्व-हरण-वेरमण-परिरक्खणट्ठयाए ।
१३४-परद्रव्यहरणविरमण (अदत्तादानत्याग) व्रत की पूरी तरह रक्षा करने के लिए पाँच भावनाएँ हैं, जो आगे कही जा रही हैं। प्रथम भावना : निर्दोष उपाश्रय
१३५-पढम-देवकुल-सभा-प्पवा-वसह-रुक्खमूल-पाराम-कंदरागर-गिरि-गुहा-कम्मंतउज्जाणजाणसाला-कुवियसाला-मंडव-सुण्णधर-सुसाण-लेण-प्रावणे अण्णम्मि य एवमाइयम्मि दग-मट्टिय-बीजहरिय-तसपाणप्रसंसत्ते प्रहाकडे फासुए विवित्ते पसत्थे उवस्सए होइ विहरियव्वं ।
___पाहाकम्मबहुले य जे से प्रासित्त-सम्मज्जिय-उवलित्त-सोहिय-छायण-दूमण-लिपण-अणुलिपणजलण-भंडचालणं अंतो बहिं च प्रसंजमो जत्थ वट्टइ संजयाण अट्ठा वज्जियन्वो हु उवस्सनो से तारिसए सुत्तपडिकुठे।
एवं विवत्तवासवसहिसमिइजोगेण भाविप्रो भवइ अंतरप्पा णिच्च-अहिगरणकरणकारावणपावकम्मविरो दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई ।
१३५–पाँच भावनाओं में से प्रथम भावना (विविक्त एवं निर्दोष वसति का सेवन करना) है । वह इस प्रकार है-देवकुल-देवालय, सभा-विचार-विमर्श का स्थान अथवा व्याख्यानस्थान, प्रपा-प्याऊ, आवसथ-परिव्राजकों के ठहरने का स्थान, वृक्षमूल, आराम-लतामण्डप आदि से युक्त, दम्पतियों के रमण करने योग्य बगीचा, कन्दरा-गुफा, प्राकर-खान, गिरिगुहा-पर्वत की गुफा, कर्म-जिसके अन्दर सुधा (चूना) आदि तैयार किया जाता है, उद्यान-फूल वाले वृक्षों से युक्त बाग, यानशाला-रथ आदि रखने की जगह, कुप्यशाला–घर का सामान रखने का स्थान, मण्डपविवाह आदि के लिए या यज्ञादि के लिए बनाया गया मण्डप, शून्य घर, श्मशान, लयन–पहाड़ में बना गृह तथा दुकान में और इसी प्रकार के अन्य स्थानों में जो भी सचित्त जल, मृत्तिका, बीज, दूब आदि हरित और चींटी-मकोड़े आदि त्रस जीवों से रहित हो, जिसे गृहस्थ ने अपने लिए बनवाया हो, प्रासुक-निर्जीव हो, जो स्त्री, पशु एवं नपुसक के संसर्ग से रहित हो और इस कारण जो प्रशस्त हो, ऐसे उपाश्रय में साधु को विहरना चाहिए-ठहरना चाहिए ।
(किस प्रकार के उपाश्रय-स्थान में नहीं ठहरना चाहिए ? इसका उत्तर यह है-) साधुओं