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सत्य की महिमा ]
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बोलना चाहिए (क्योंकि जो वचन तथ्य होते हुए भी हितकर नहीं, प्रशस्त नहीं, हिंसकारी है, वह सत्य में परिगणित नहीं होता) । जो वचन ( तथ्य होते हुए भी) हिंसा रूप पाप से अथवा हिंसा एवं पाप से युक्त हो, जो भेद - फूट उत्पन्न करने वाला हो, जो विकथाकारक हो—स्त्री आदि से सम्बन्धित चारित्रनाशक या अन्य प्रकार से अनर्थ का हेतु हो, जो निरर्थक वाद या कलहकारक हो अर्थात् जो वचन निरर्थक वाद-विवाद रूप हो और जिससे कलह उत्पन्न हो, जो वचन अनार्य हो – अनाड़ी लोगों के योग्य हो - आर्य पुरुषों के बोलने योग्य न हो अथवा अन्याययुक्त हो, जो अन्य के दोषों को प्रकाशित करने वाला हो, विवादयुक्त हो, दूसरों की विडम्बना - फजीहत करने वाला हो, जो विवेकशून्य जोश और धृष्टता से परिपूर्ण हो, जो निर्लज्जता से भरा हो, जो लोक - जनसाधारण या सत्पुरुषों द्वारा निन्दनीय हो, ऐसा वचन नहीं बोलना चाहिए ।
जो घटना भलीभाँति स्वयं न देखी हो, जो बात सम्यक् प्रकार से सुनी न हो, जिसे ठीक तरह - यथार्थ रूप में जान नहीं लिया हो, उसे या उसके विषय में बोलना नहीं चाहिए ।
इसी प्रकार अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा भी ( नहीं करनी चाहिए), यथा-तू बुद्धिमान् नहीं है - बुद्धिहीन है, तू धन्य-धनवान् नहीं - दरिद्र है, तू धर्मप्रिय नहीं है, तू कुलीन नहीं है, तू दानपति - दानेश्वरी नहीं है, तू शूरवीर नहीं है, तू सुन्दर नहीं है, तू भाग्यवान् नहीं है, तू पण्डित नहीं है, तू बहुश्रुत - अनेक शास्त्रों का ज्ञाता नहीं है, तू तपस्वी भी नहीं है, तुझमें परलोक संबंधी निश्चय करने की बुद्धि भी नहीं है, आदि । अथवा जो वचन सदा-सर्वदा जाति (मातृपक्ष ), कुल (पितृपक्ष), रूप ( सौन्दर्य), व्याधि ( कोढ़ आदि बीमारी), रोग (ज्वरादि) से सम्बन्धित हो, जो
start या निन्दनीय होने के कारण वर्जनीय हो- न बोलने योग्य हो, अथवा जो वचन द्रोहकारक अथवा द्रव्य-भाव से प्रादर एवं उपचार से रहित हो - शिष्टाचार के अनुकूल न हो अथवा उपकार का उल्लंघन करने वाला हो, इस प्रकार का तथ्य – सद्भूतार्थ वचन भी नहीं बोलना चाहिए ।
( यदि पूर्वोक्त प्रकार के तथ्य - वास्तविक वचन भी बोलने योग्य नहीं हैं तो प्रश्न उपस्थित होता है कि) फिर किस प्रकार का सत्य बोलना चाहिए ?
प्रश्न का उत्तर यह है - जो वचन द्रव्यों - त्रिकालवर्त्ती पुद्गलादि द्रव्यों से, पर्यायों सेनवीनता, पुरातनता आदि क्रमवर्त्ती अवस्थाओं से तथा गुणों से अर्थात् सहभावी वर्ण आदि विशेषों से युक्त हों अर्थात् द्रव्यों, पर्यायों या गुणों के प्रतिपादक हों तथा कृषि आदि कर्मों से अथवा धरनेउठाने आदि क्रियाओं से, अनेक प्रकार की चित्रकला, वास्तुकला आदि शिल्पों से और आगमों अर्थात् सिद्धान्तसम्मत अर्थों से युक्त हों और जो नाम देवदत्त आदि संज्ञापद, प्रख्यात - त्रिकाल सम्बन्धी 'भवति' आदि क्रियापद, निपात- 'वा, च' आदि अव्यय, प्र, परा आदि उपसर्ग, तद्धितपद - जिनके अन्त
तद्धित प्रत्यय लगा हो, जैसे 'नाभेय' आदि पद, देना, जैसे 'राजपुरुष' आदि, सन्धि-समीपता के विद्यालय आदि, हेतु अनुमान का वह अंग जिससे किसी विशिष्ट स्थल पर अस्तित्व जाना जाता है, जिस पद के अवयवार्थ से समुदायार्थ जाना जाए, प्रत्यय जिन पदों के अन्त में हों, जैसे 'साधु' आदि
समास - अनेक पदों को मिला कर एक पद बना कारण अनेक पदों का जोड़, जैसे विद्या + श्रालय= साध्य को जाना जाए, जैसे धूम से अग्नि का यौगिक-दो आदि के संयोग वाला पद अथवा जैसे ' उपकरोति' आदि उणादि - उणादिगण क्रियाविधान – क्रिया को सूचित करने वाला