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[प्रश्नव्याकरण सूत्र : श्रु. २. अ. १
दर्शनबली-सुदृढ तन्वार्थश्रद्धा के बल से सम्पन्न । चारित्रबली-विशुद्ध चारित्र की शक्ति से युक्त । क्षीरालवी-जिनके वचन दूध के समान मधुर प्रतीत हों। मधुरालवी-जिनकी वाणी मधु-सी मीठी हो । सपिरास्रवी-जिनके वचन घृत जैसे स्निग्ध-स्नेहभरे हों। अक्षीणमहानसिक–समाप्त नहीं होने वाले भोजन की लब्धि वाले । इस लब्धि के धारक मुनि अकेले अपने लिए लाये भोजन में से लाखों को तृप्तिजनक भोजन करा सकते हैं । वह भोजन तभी समाप्त होता है जब लाने वाला स्वयं भोजन कर ले। चारण-ग्राकाश में विशिष्ट गमन करने वाले। विद्याधर-विद्या के बल से आकाश में चलने की शक्ति वाले। उत्क्षिप्तचरक--पकाने के पात्र में से बाहर निकाले हुए भोजन में से ही आहार ग्रहण करने के अभिग्रह वाले। निक्षिप्तचरक-पकाने के पात्र में रक्खे हुए भोजन को ही लेने वाले । अन्तचरक-नीरस या चना आदि निम्न कोटि का ही आहार लेने वाले । प्रान्तचरक-बचा-खुचा ही आहार लेने की प्रतिज्ञा-अभिग्रह वाले । रूक्षचरक-रूखा-सूखा ही आहार लेने वाले। समुदानचरक-सधन, निर्धन एवं मध्यम श्रेणी के घरों से समभावपूर्वक भिक्षा ग्रहण करने वाले। अन्नग्लायक-ठंडी-वासी भिक्षा स्वीकार करने वाले । मौनचरक-मौन धारण करके भिक्षा के लिए जाने वाले। संसृष्टकल्पिक-भरे (लिप्त) हाथ या पात्र से आहार लेने की मर्यादा वाले। तज्जातसंसृष्टकल्पिक-जो पदार्थ ग्रहण करना है उसी से भरे हुए हाथ या पात्रादि से भिक्षा लेने के कल्प वाले। उपनिधिक-समीप में ही भिक्षार्थ जाने के अथवा समीप में रहे हुए पदार्थ को ही ग्रहण करने के अभिग्रह वाले। शुद्धषणिक-निर्दोष पाहार की गवेषणा करने वाले। संख्यादत्तिक-दत्तियों की संख्या निश्चित करके आहार लेने वाले। दष्टलाभिक-दृष्ट स्थान से दी जाने वाली या दष्ट पदार्थ की भिक्षा ही स्वीकार करने वाले। प्रदृष्टलाभिक-अदृष्टपूर्व-पहले नहीं देखे दाता से भिक्षा लेने वाले । पृष्टलाभिक-'महाराज ! यह वस्तु लेंगे ?' इस प्रकार प्रश्नपूर्वक प्राप्त भिक्षा लेने वाले । आचाम्लिक-आयंबिल तप करने वाले। पुरिमाधिक-दो पौरुषी दिन चढ़े बाद आहार लेने वाले ।