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[प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. २, अ. १ बीजबुद्धि-कोष्ठबुद्धि-पदानुसारिबुद्धि-लब्धि के धारकों, संभिन्नश्रोतस्लब्धि के धारकों श्रुतधरों, मनोबली, वचनबली और कायबली मुनियों, ज्ञानबली, दर्शनबली तथा चारित्रबली महापुरुषों ने, मध्वास्रवलब्धिधारी,सपिरास्रवलब्धिधारी तथा अक्षीणमहानसलब्धि के धारकों ने चारणों और विद्याधरों ने, चतुर्थभक्तिकों-एक-एक उपवास करने वालों से लेकर दो, तीन, चार, पाँच दिनों, इसी प्रकार एक मास, दो मास, तीन मास, चार मास, पाँच मास एवं छह मास तक का अनशन-उपवास करने वाले तपस्वियों ने, इसी प्रकार उत्क्षिप्तचरक, निक्षिप्तचरक, अन्तचरक, प्रान्तचरक, रूक्षचरक, समुदानचरक, अन्नग्लायक, मौनचरक, संसृष्टकल्पिक, तज्जातसंसृष्टकल्पिक, उपनिधिक, शुद्धषणिक, संख्यादत्तिक, दृष्टलाभिक, अदृष्टलाभिक, पृष्ठलाभिक, आचाम्लक, पुरिमाधिक, एकाशनिक, निर्विकृतिक, भिन्नपिण्डपातिक, परिमितपिण्डपातिक, अन्ताहारी, प्रान्ताहारी, अरसाहारी, विरसाहारी, रूक्षाहारी तुच्छाहारी, अन्तजीवी, प्रान्तजीवी, रूक्षजीवी, तुच्छजीवी, उपशान्तजीवी, प्रशान्तजीवी, विविक्तजीवी तथा दूध, मधु और घृत का याबज्जीवन त्याग करने वालों ने, मद्य और मांस से रहित आहार करने वालों ने कायोत्सर्ग करके एक स्थान पर स्थित रहने का अभिग्रह करने वालों ने, प्रतिमास्थायिकों ने स्थानोत्कटिकों ने, वीरासनिकों ने, नैषधिकों ने, दण्डायतिकों ने, लग एकपार्श्वकों ने, आतापकों ने, अपावतों ने, अनिष्ठीवकों ने, अकंड्रयकों ने, धूतकेश-श्मश्रु लोम-नख अर्थात् सिर के बाल, दाढी, मूछ और नखों का संस्कार करने का त्याग करने वालों ने, सम्पूर्ण शरीर के प्रक्षालन आदि संस्कार के त्यागियों ने, श्रुतधरों के द्वारा तत्त्वार्थ को अवगत करने वाली बुद्धि के धारक महापुरुषों ने (अहिंसा भगवती का) सम्यक् प्रकार से आचरण किया है। (इनके अतिरिक्त
आशीविष सर्प के समान उग्र तेज से सम्पन्न महापुरुषों ने, वस्तुतत्त्व का निश्चय और पुरुषार्थ-दोनों में पूर्ण कार्य करने वाली बुद्धि से सम्पन्न प्रज्ञापुरुषों ने, नित्य स्वाध्याय और चित्तवृत्तिनिरोध रूप ध्यान करने वाले तथा धर्मध्यान में निरन्तर चिन्ता को लगाये रखने वाले पुरुषों ने, पाँच महाव्रतस्वरूप चारित्र से युक्त तथा पाँच समितियों से सम्पन्न, पापों का शमन करने वाले, षट् जीवनिकाथरूप जगत् के वत्सल, निरन्तर अप्रमादी रह कर विचरण करने वाले महात्माओं ने तथा अन्य विवेकविभूषित सत्पुरुषों ने अहिंसा भगवती की आराधना की है।
विवेचन-कतिपय लोगों की ऐसी धारणा होती है कि अहिंसा एक आदर्श सिद्धान्त मात्र है । जीवन में उसका निर्वाह नहीं किया जा सकता, अर्थात् वह व्यवहार में नहीं लाई जा सकती। इस धारणा को भ्रमपूर्ण सिद्ध करने के लिए सूत्रकार ने खूब विस्तारपूर्वक यह बतलाया है कि अहिंसा मात्र सिद्धान्त नहीं, वह व्यवहार भी है और अनेकानेक महापुरुष अपने जीवन में उसका पूर्णरूपेण परिपालन करते रहे हैं। यही तथ्य स्फुट करने के उद्देश्य से यहाँ तीर्थंकर भगवन्तों से लेकर विशिष्ट ज्ञानों ने धारकों, अतिशय लोकोत्तर बुद्धि के धनियों, विविध लब्धियों से सम्पन्न महामुनियों, आहार-विहार में अतिशय संयमशील एवं तपोनिरत तपस्वियों आदि-आदि का उल्लेख हुआ है।
इस विस्तृत उल्लेख से उन साधकों के चित्त का समाधान भी किया गया है जो अहिंसा के पथ पर अग्रसर होने में शंकाशील होते हैं। जिस पथ पर अनेकानेक पुरुष चल चुके हैं, उस पर निश्शंक भाव से मनुष्य चल पड़ता है । लोकोक्ति है
महाजनो येन गतः स पन्थाः।