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________________ १६६] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्र. २, अं.१ हा है ? नहीं ।) भगवती अहिंसा इनसे भी अत्यन्त विशिष्ट है, जो पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, बीज, हरितकाय, जलचर, स्थलचर, खेचर, प्रस और स्थावर सभी जीवों का क्षेम-कुशल-मंगल करने वाली है। विवेचन—प्रस्तुत पाठ में अहिंसा की महिमा एवं उपयोगिता का सुगम तथा भावपूर्ण चित्र उपमानों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। जो प्राणी भय से ग्रस्त है, जिसके सिर पर चारों ओर से भय मंडरा रहा हो, उसे यदि निर्भयता का स्थान---शरण मिल जाए तो कितनी प्रसन्नता होती है ! मानो उसका प्राण-संकट टला और नया जीवन मिला । अहिंसा समस्त प्राणियों के लिए इसी प्रकार शरणप्रदा है । व्योमविहारी पक्षी को पृथ्वी पर अनेक संकट पाने की आशंका रहती है और थोड़ी-सी भी आपत्ति की संभावना होते ही वह धरती छोड़ कर आकाश में उड़ने लगता है। आकाश उसके लिए अभय का स्थल है । अहिंसा भी अभय का स्थान है । प्यास से पीडित को पानी और भूखे को भोजन मिल जाए तो उसकी पीडा एवं पीडाजनित व्याकुलता मिट जाती है, उसे शान्ति प्राप्त होती है, उसी प्रकार अहिंसा परम शान्तिदायिनी है । __ जैसे जहाज समुद्र में डूबते की प्राणरक्षा का हेतु होता है, उसी प्रकार संसार-समुद्र में डूबने वाले प्राणियों की रक्षा करने वाली, उन्हें उबारने वाली अहिंसा है। चौपाये जैसे अपने वाड़े में पहुँच कर निर्भयता का अनुभव करते हैं वह उनके लिए अभय का स्थान है, इसी प्रकार भगवती अहिंसा भी अभय का स्थान है-अभय प्रदान करने वाली है। जहाँ आवागमन बहुत ही कम होता है, ऐसी सुनसान तथा हिंस्र जन्तुषों से व्याप्त अटवी में एकाकी गमन करना संकटमय होता है । सार्थ (समूह) के साथ जाने पर भय नहीं रहता, इसी प्रकार जहाँ अहिंसा है, वहाँ भय नहीं रहता। इन उपमानों के निरूपण के पश्चात् सूत्रकार ने स्पष्ट किया है कि अहिंसा आकाश, पानी, भोजन, औषध आदि के समान कही गई है किन्तु ये उपमाएँ पूर्णोपमाएँ नहीं हैं। भोजन, पानी, औषध आदि उपमाएँ न तो ऐकान्तिक हैं और न प्रात्यन्तिक । तात्पर्य यह है कि दुःख या भय का प्रतीकार करने वाली इन वस्तुओं से न तो सदा के लिए दुःख दूर होता है और न परिपूर्ण रूप से होता है। यही नहीं, कभी-कभी तो भोजन, औषध आदि दु:ख के कारण भी बन जाते हैं। किन्तु अहिंसा में यह खतरा नहीं है । अहिंसा से प्राप्त प्रानन्द ऐकान्तिक है-उससे दुःख की लेशमात्र भी संभावना नहीं है । साथ ही वह आनन्द प्रात्यन्तिक भी है, अर्थात् अहिंसा से निर्वाण की प्राप्ति होती है, अतएव वह आनन्द सदैव स्थायी रहता है । एक वार प्राप्त होने के पश्चात् उसका विनाश नहीं होता । इस प्राशय को व्यक्त करने के लिए शास्त्रकार ने कहा है—'एत्तो विसिट्टतरिगा अहिंसा' अर्थात् अहिंसा इन सब उपमाभूत वस्तुओं से अन्यन्त विशिष्ट है। ___ मूलपाठ में वनस्पति का उल्लेख करने के साथ बीज, हरियकाय, पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रीय का उल्लेख करने के साथ स्थावर का एवं जलचर आदि के साथ त्रस का और अन्त में 'सर्वभूत' शब्द का जो पृथक् ग्रहण किया गया है, इसका प्रयोजन अहिंसा-भगवती की महिमा के अतिशय
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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