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अब्रह्मचर्य के दुष्परिणाम]
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धर्म शीलं कुलाचारं, शौर्यं स्नेहञ्च मानवाः।
तावदेव ह्यपेक्षन्ते, यावन्न स्त्रीवशो भवेत् ॥ अर्थात् मनुष्य अपने धर्म की, अपने शील की, शौर्य और स्नेह की तभी तक परवाह करते हैं, जब तक वे स्त्री के वशीभूत नहीं होते।
- सूत्र में 'विषयविसस्स उदीरएसु' कह कर स्त्रियों को विषय रूपी विष की उदीरणा या उद्रेक करने वाली कहा गया है । यही कथन पुरुषवर्ग पर भी समान रूप से लागू होता है, अर्थात् पुरुष, स्त्रीजनों में विषय-विष का उद्रेक करने वाले होते हैं । इस कथन का अभिप्राय यह है कि जैसे स्त्री के दर्शन, सान्निध्य, संस्पर्श आदि से पुरुष में काम-वासना का उद्रेक होता है, उसी प्रकार पुरुष के दर्शन, सान्निध्य, संस्पर्श आदि से स्त्रियों में वासना की उदीरणा होती है । स्त्री और पुरुष दोनों ही एक-दूसरे की वासनावृद्धि में बाह्य निमित्तकारण होते हैं। उपादानकारण पुरुष की या स्त्री की आत्मा स्वयं ही है। अन्तरंग निमित्तकारण वेदमोहनीय आदि का उदय है तथा बहिरंग निमित्तकारण स्त्री-पुरुष के शरीर आदि हैं । बाह्य निमित्त मिलने पर वेद-मोहनीय की उदीरणा होती है। मैथुनसंज्ञा की उत्पत्ति के कारण बतलाते हुए कहा गया है
पणीदरसभोयणेण य तस्सुवजोगे कुसीलसेवाए।
वेदस्सूदीरणाए, मेहुणसण्णा हवदि एवं ।। अर्थात् इन्द्रियों को उत्तेजित करने वाले गरिष्ठ रसीले भोजन से, पहले सेवन किये गए विषयसेवन का स्मरण करने से, कुशील के सेवन से और वेद-मोहनीयकर्म की उदीरणा से मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है।
इसी कारण मैथुनसंज्ञा के उद्रेक से बचने के लिए ब्रह्मचर्य की नौ वाडों का विधान किया है।
सूत्र में 'गण' शब्द का प्रयोग 'समाज' के अर्थ में किया गया है । मानवों का वह समूह गण कहलाता है जिनका आचार-विचार और रहन-सहन समान होता है । परस्त्रीलम्पट पुरुष समाज की उपयोगी और लाभकारी मर्यादाओं को भंग कर देता है। वह शास्त्राज्ञा की परवाह नहीं करता, धर्म का विचार नहीं करता तथा शील और सदाचार को एक किनारे रख देता है । ऐसा करके वह सामाजिक शान्ति को ही भंग नहीं करता, किन्तु अपने जीवन को भी दुःखमय बना लेता है। वह नाना व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है, अपयश का पात्र बनता है, निन्दनीय होता है और परलोक में भव-भवान्तर तक घोर यातनाओं का पात्र बनता है । चोरी के फल-विपाक के समान अब्रह्म का फलविपाक भी यहाँ जान लेना चाहिए।
अब्रह्मचर्य का दुष्परिणाम
__ ९१-मेहुणमूलं य सुव्वए तत्थ तत्थ वत्तपुवा संगामा जणक्खयकरा सीयाए, दोवईए कए, रुप्पिणीए, पउमावईए, ताराए, कंचणाए, रत्तसुभद्दाए, अहिल्लियाए, सुवण्णगुलियाए, किण्णरीए,