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________________ १३६] [ प्रश्नव्याकरणसूत्र : भु. १, अ. ४ कोई-कोई विषयरूपी विष की उदीरणा करने वाली -- बढ़ाने वाली परकीय स्त्रियों में प्रवृत्त होकर अथवा विषय-विष के वशीभूत होकर परस्त्रियों में प्रवृत्त होकर दूसरों के द्वारा मारे जाते हैं । जब उनकी परस्त्रीलम्पटता प्रकट हो जाती है तब ( राजा या राज्य शासन द्वारा ) धन का विनाश और स्वजनों - आत्मीय जनों का सर्वथा नाश प्राप्त करते हैं, अर्थात् उनकी सम्पत्ति और कुटुम्ब का नाश हो जाता है । जो परस्त्रियों से विरत नहीं हैं और मैथुनसेवन की वासना से प्रतीव आसक्त हैं और मूढता या मोह से भरपूर हैं, ऐसे घोड़े, हाथी, बैल, भैंसे और मृग - वन्य पशु परस्पर लड़ कर एक-दूसरे को मार डालते हैं । मनुष्यगण, बन्दर और पक्षीगण भी मैथुनसंज्ञा के कारण परस्पर विरोधी बन जाते हैं । मित्र शीघ्र ही शत्रु बन जाते हैं । परस्त्रीगामी पुरुष समय - सिद्धान्तों या शपथों को, अहिंसा, सत्य आदि धर्मों को तथा गणसमान आचार-विचार वाले समूह को या समाज की मर्यादाओं को भंग कर देते हैं, अर्थात् धार्मिक एवं समाजिक मर्यादाओं का लोप कर देते हैं । यहाँ तक कि धर्म और संयमादि गुणों में निरत ब्रह्मचारी पुरुष भी मैथुनसंज्ञा के वशीभूत होकर क्षण भर में चारित्र - संयम से भ्रष्ट हो जाते हैं । बड़े-बड़े यशस्वी और व्रतों का समीचीन रूप से पालन करने वाले भी अपयश और अपकीर्ति के भागी बन जाते हैं ।. ज्वर आदि रोगों से ग्रस्त तथा कोढ आदि व्याधियों से पीडित प्राणी मैथुनसंज्ञा की तीव्रता की बदौलत रोग र व्याधि की अधिक वृद्धि कर लेते हैं, अर्थात् मैथुन सेवन की अधिकता रोगों को और व्याधियों को बढ़ावा देती है । जो मनुष्य परस्त्री से विरत नहीं हैं, वे दोनों लोकों में, इहलोक और परलोक में दुराराधक होते है, अर्थात् इहलोक में और परलोक में भी आराधना करना उनके लिए कठिन है । इस प्रकार जिनकी बुद्धि तीव्र मोह या मोहनीय कर्म के उदय से नष्ट हो जाती है, वे यावत' अधोगति को प्राप्त होते हैं । विवेचन - मूल पाठ में सामान्यतया मैथुनसंज्ञा से उत्पन्न होने वाले अनेक अनर्थों का उल्लेख किया गया है और विशेष रूप से परस्त्रीगमन के दुष्परिणाम प्रकट किए गए हैं। मानव के मन में जब तीव्र मैथुनसंज्ञा - कामवासना उभरती है तब उसकी विपरीत हो जाती है और उसका विवेक - कर्त्तव्य - प्रकर्त्तव्यबोध विलीन हो जाता है । वह अपने हिताहित का भविष्य में होने वाले भयानक परिणामों का सम्यक् विचार करने में असमर्थ बन जाता है । इसी कारण उसे विषयान्ध कहा जाता है । उस समय वह अपने यश, कुल, शील आदि का तनिक भो विचार नहीं कर सकता । कहा है १. 'यावत' शब्द से यहां तृतीय प्रस्रवद्वार का 'गहिया य हया य बद्ध रुद्धा य' यहाँ से आगे 'निरये गच्छति निरभिरामे' यहाँ तक का पाठ समझ लेना चाहिए। - अभय टीका पृ. ५६.
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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