________________
[१२५
बलदेव और वासुदेव के भोग] विविध प्रकार की मणियों के तथा पीतवर्ण तपनीय स्वर्ण के बने विचित्र दंडों वाले होते हैं। वे लालित्य से युक्त और नरपतियों की लक्ष्मी के अभ्युदय को प्रकाशित करते हैं। वे बड़े-बड़े पत्तनोंनगरों में निर्मित होते हैं और समृद्धिशाली राजकुलों में उनका उपयोग किया जाता है । वे चामर, काले अगर, उत्तम कुदरुक्क–चीड़ की लकड़ी एवं तुरुष्क-लोभान की धूप के कारण उत्पन्न होने वाली सुगंध के समूह से सुगंधित होते हैं। (ऐसे चामर बलदेव और वासुदेव के दोनों पसवाड़ों की ओर ढोले जाते हैं, जिनसे सुखप्रद तथा शीतल पवन का प्रसार होता है।)
(वे बलदेव और वासुदेव) अपराजेय होते हैं किसी के द्वारा जीते नहीं जा सकते। उनके रथ अपराजित होते हैं । बलदेव हाथों में हल, मूसल और वाण धारण करते हैं और वासुदेव पाञ्चजन्य शंख, सुदर्शन चक्र, कौमुदी गदा, शक्ति (शस्त्र-विशेष) और नन्दक नामक खड्ग धारण करते हैं । अतीव उज्ज्वल एवं सुनिमित कौस्तुभ मणि और मुकुट को धारण करते हैं। कुडलों (की दीप्ति) से उनका मुखमण्डल प्रकाशित होता रहता है । उनके नेत्र पुण्डरीक-श्वेत कमल के समान विकसित होते हैं । उनके कण्ठ और वक्षस्थल पर एकावली-एक लड़ वाला हार शोभित रहता है। उनके वक्षस्थल में श्रीवत्स का सुन्दर चिह्न बना होता है । वे उत्तम यशस्वी होते हैं। सर्व ऋतुओं के सौरभमय सुमनों से ग्रथित लम्बी शोभायुक्त एवं विकसित वनमाला से उनका वक्षस्थल शोभायमान रहता है । उनके अंग उपांग एक सौ आठ मांगलिक तथा सुन्दर लक्षणों-चिह्नों से सुशोभित होते हैं । उनकी गति-चाल मदोन्मत्त उत्तम गजराज की गति के समान ललित और विलासमय होती है। उनकी कमर कटिसूत्र-करधनी से शोभित होती है और वे नीले तथा पीले वस्त्रों को धारण करते हैं, अर्थात् बलदेव नीले वर्ण के और वासुदेव पीत वर्ण के कौशेय-रेशमी वस्त्र पहनते हैं । वे प्रखर तथा देदीप्यमान तेज से विराजमान होते हैं। उनका घोष (आवाज) शरत्काल के नवीन मेघ की गर्जना के समान मधुर, गंभीर और स्निग्ध होता है। वे नरों में सिंह के समान (प्रचण्ड पराक्रम के धनी) होते हैं । उनको गति सिंह के समान पराक्रमपूर्ण होती है। वे बड़े-बड़े राज-सिंहों के (तेज को) अस्त-समाप्त कर देने वाले अथवा युद्ध में उनको जीवनलीला को समाप्त कर देते हैं। फिर (भी प्रकृति से) सौम्य-शान्त-सात्विक होते हैं । वे द्वारवती-द्वारका नगरी के पूर्ण चन्द्रमा थे। वे पूर्वजन्म में किये तपश्चरण के प्रभाव वाले होते हैं। वे पूर्वसंचित इन्द्रियसुखों के उपभोक्ता और अनेक सौ वर्षों सैकड़ों वर्षों की आयु वाले होते हैं।
ऐसे बलदेव और वासुदेव विविध देशों की उत्तम पत्नियों के साथ भोग-विलास करते हैं, अनुपम शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धरूप इन्द्रियविषयों का अनुभव-भोगोपभोग करते हैं। परन्तु वे भी कामभोगों से तप्त हए विना ही कालधर्म (मत्यु) को प्राप्त होते हैं।
विवेचन-षट्खण्डाधिपति चक्रवर्ती महाराजाओं की ऋद्धि, भोगोपभोग, शारीरिक सम्पत्ति आदि का विशद वर्णन करने के पश्चात् यहाँ बलभद्र और नारायण की ऋद्धि आदि का परिचय दिया गया है।
बलभद्र और नारायण प्रत्येक उत्सर्पिणी और प्रत्येक अवपिणी काल में होते हैं, जैसे चक्रवर्ती होते हैं । नारायण अर्थात् वासुदेव चक्रवर्ती की अपेक्षा आधी ऋद्धि, शरीरसम्पत्ति, बल-वाहन आदि विभूति आदि के धनी होते हैं । बलभद्र उनके ज्येष्ठ भ्राता होते हैं।
प्रस्तुत सूत्र का मूल प्राशय सभी कालों में होने वाले सभी बलभद्रों और नारायणों के भोगों एवं व्यक्तित्व का वर्णन करना और यह प्रदर्शित करना है कि संसारी जीव उत्कृष्ट से उत्कृष्ट भोग