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बलदेव और वासुदेव के भोग]
[१२३ तेहि य अविरलसमसहियचंदमंडलसमप्पभेहि सुरमिरीयिकवयं विणिम्मुयंतेहिं सपडिदंडेहि, प्रायवत्तेहिं धरिज्जतेहिं विरायंता । ताहि य पवरगिरिकुहरविहरणसमुद्धियाहि णिरुवयचमरपच्छिमसरीरसंजायाहिं अमइलसेयकमलविमुकुलज्जलिय- रययगिरिसिहर-विमलससिकिरण-सरिसकलहोय. णिम्मलाहिं पवणाहयचवलचलियसललियपणच्चियवीइपसरियखीरोदगपवरसागरुप्पूरचंचलाहि माणससरपसरपरिचियावासविसदवेसाहि कणगगिरिसिहरसंसिताहि उवायप्पायचवलजयिणसिग्धवेगाहिं हंसवधूयाहिं चेव कलिया जाणामणिकणगमहरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तडंडाहि सललियाहिं गरवइसिरिसमुदयप्पगासणकरिहि वरपट्टणुग्गयाहिं समिद्धरायकुलसेवियाहि कालागुरुपवरकुदरुक्कतुरुक्कधूववसवासविसदगंधुद्धयाभिरामाहिं चिल्लिगाहिं उभोपासं वि चामराहिं उक्खिप्पमाणाहिं सुहसीययवायवीइयंगा।
प्रजिया अजियरहा हलमूसलकणगपाणी संचचक्कगयसत्तिणंदगधरा पवरुज्जलसुकयविमलकोथूभतिरोडधारी कुंडलउज्जोवियाणणा पुंडरोयणयणा एगावलीकंठरइयवच्छा सिरिवच्छसुलंछणा वरजसा सव्वोउय-सुरभिकुसुमसुरइयपलंबसोहंतवियसंतचित्तवणमालरइयवच्छा अट्ठसयविभत्तलक्खणपसत्थसुदरविराइयंगमंगा मत्तगयरिंदललियविक्कमविलसियगई कडिसुत्तगणीलपीयकोसिज्जवाससा पवरदित्ततेया सारयणवत्थणियमहरगंभीरणिद्धघोसा गरसीहा सीहविक्कमगई प्रथमियपवररायसीहा सोमा बारवइपुण्णचंदा पुवकयतवप्पभावा णिविट्ठिसंचियसुहा अणेगवाससयमाउवंता भज्जाहि य जणवयप्पहाणाहिं लालियंता अउल-सद्दफरिसरसरूवगंधे अणुहवित्ता ते वि उवणमंति मरणधम्म प्रवितत्ता कामाणं । ।
८६-और फिर (बलदेव तथा वासुदेव जैसे विशिष्ट ऐश्वर्यशाली एवं उत्तमोत्तम काम-भोगों के उपभोक्ता भी जीवन के अन्त तक भोग भोगने पर भी तृप्त नहीं हो पाते, वे) बलदेव और वासुदेव पुरुषों में अत्यन्त श्रेष्ठ होते हैं, महान् बलशाली और महान् पराक्रमी होते हैं । बड़े-बड़े(सारंग आदि) धनुषों को चढ़ाने वाले, महान् सत्त्व के सागर, शत्रुओं द्वारा अपराजेय, धनुषधारी, मनुष्यों में धोरी वृषभ के समान–स्वीकृत उत्तरदायित्व-भार का सफलतापूर्वक निर्वाह करने वाले, राम-बलराम और केशव-श्रीकृष्ण-दोनों भाई-आई अथवा भाइयों सहित, एवं विशाल परिवार समेत होते हैं। वे वसुदेव तथा समुद्रविजय आदि दशाह-माननीय पुरुषों के तथा प्रद्युम्न, प्रतिव, शम्ब, अनिरुद्ध, निषध, उल्मक, सारण, गज, सुमुख, दुर्मुख आदि यादवों और साढ़े तीन करोड़ कुमारों के हृदयों को दयित-प्रिय होते हैं । वे देवी-महारानी रोहिणी के तथा महारानी देवकी के हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाले-उनके अन्तस् में प्रीतिभाव के जनक होते हैं । सोलह हजार मुकुट-बद्ध राजा उनके मार्ग का अनुगमन करते हैं-उनके पोछे-पीछे चलते हैं । वे सोलह हजार सुनयना महारानियों के हृदय के वल्लभ होते हैं। उनके भाण्डार विविध प्रकार की मणियों, स्वर्ण, रत्न, मोती, मूगा, धन और धान्य के संचय रूप ऋद्धि से सदा भरपूर रहते हैं । वे सहस्रों हाथियों, घोड़ों एवं रथों के अधिपति होते हैं । सहस्रों ग्रामों, आकरों, नगरों, खेटों, कर्बटों, मङम्बों, द्रोणमुखों, पट्टनों, आश्रमों, संवाहों-सुरक्षा के लिए निर्मित किलों में स्वस्थ, स्थिर, शान्त और प्रमुदित जन निवास करते हैं, जहां विविध प्रकार के धान्य उपजाने वाली भूमि होती है, जहाँ बड़े-बड़े सरोवर हैं, नदियाँ हैं, छोटे-छोटे तालाब हैं, पर्वत हैं, वन हैं, आराम-दम्पतियों के क्रीडा करने योग्य बगीचे हैं, उद्यान हैं, (ऐसे ग्राम-नगर आदि के वे