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अब्रह्म के गुण-निष्पन्न नाम]
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नहीं है। हरि, हर, ब्रह्मा आदि से लेकर कोई भी शूरवीर पुरुष ऐसा नहीं है जो कामवासनाअब्रह्मचर्य के अधीन न हो । यदि किसी पर इसका वश नहीं चल पाता तो वह केवल वीतरागजिन ही हैं, अर्थात् जिसने राग का समूल उन्मूलन कर दिया है, जो वासना से सर्वथा रहित हो गया है वही पुरुषपुगव अब्रह्मचर्य के फंदे से बच सका है।'
इस कथन का आशय यह नहीं है कि अब्रह्मचर्य के पाश से बचना और ब्रह्मचर्य की आराधना करना असंभव है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, जिन–वीतराग पुरुष इस दुर्जय विकार पर अवश्य विजय प्राप्त करते हैं। यदि अब्रह्मचर्य का त्याग असंभव होता तो सर्वज्ञ- ज-वीतरागमहापुरुष इसके त्याग का उपदेश ही क्यों देते ! जहाँ पुराणों आदि साहित्य में ब्रह्मचर्य का पालन करने को उद्यत हुए किन्तु निमित्त मिलने पर रागोद्रेक से प्रेरित होकर अनेक साधकों के उससे भ्रष्ट हो जाने के उदाहरण विद्यमान हैं, वहीं ऐसे-ऐसे जितेन्द्रिय, दृढमानस तपस्वियों के भी उदाहरण हैं, जिन्हें डिगाने के लिए देवांगनाओं ने कोई कसर नहीं रक्खी, अपनी मोहक हाव-भावविलासमय चेष्टाओं से सभी उपाय किये, किन्तु वे जितेन्द्रिय महामानव रंचमात्र भी नहीं डिगे। उन्होंने नारी को रक्त-मांस-अशुचि का ही पिण्ड समझा और अपने आत्मबल द्वारा ब्रह्मचर्य की पूर्ण रूप से रक्षा की। यही कारण है कि प्रस्तुत पाठ में उसे 'दुरंतं' तो कहा है किन्तु 'अनंतं' नहीं कहा, अर्थात् यह नहीं कहा कि उसका अन्त नहीं हो सकता। हाँ, अब्रह्मचर्य पर पूर्ण विजय पाने के लिए लप और संयम में दृढता होनी चाहिए, साधक को सतत-निरन्तर सावधान रहना चाहिए। अब्रह्म के गुण-निष्पन्न नाम
८१-तस्स य णामाणि गोण्णाणि इमाणि होति तीसं, तं जहा–१ प्रबंभं २ मेहुणं ३ चरंतं ४ संसग्गि ५ सेवणाहिगारो ६ संकप्पो ७ बाहणा पयाणं ८ दप्पो ९ मोहो १० मणसंखोभो ११ अणिगहो १२ वुग्गहो १३ विधामो १४ विभंगो १५ विन्भमो १६ अहम्मो १७ असीलया १८ गामधम्मतित्ती १९ रई २० रागचिता २१ कामभोगमारो २२ वरं २३ रहस्सं २४ गुज्झं २४ बहुमाणो २६ बंभचेरविग्यो २७ वावत्ती २८ विराहणा २९ पसंगो ३० कामगुणोत्ति वि य तस्स एयाणि एवमाईणि णामधेज्जाणि होंति तीसं ।
____८१-उस पूर्व प्ररूपित अब्रह्मचर्य के गुणनिष्पन्न अर्थात् सार्थक तीस नाम हैं। वे इस प्रकार हैं
१. अब्रह्म-अकुशल अनुष्ठान, अशुभ आचरण । २. मैथुन-मिथुन अर्थात् नर-नारी के संयोग से होने वाला कृत्य । ३. चरंत-समग्र संसार में व्याप्त । ४. संसर्गि-स्त्री और पुरुष (आदि) के संसर्ग से उत्पन्न होने वाला । ५. सेवनाधिकार-चोरी आदि अन्यान्य पापकर्मों का प्रेरक ।
१. हरि-हर-हिरण्यगर्भप्रमुखे भुवने न कोऽप्यसौ शूरः । कुसमविशिखस्य विशिखान अस्खलयद यो जिनादन्यः ।।
-प्र. व्या., आगरा-संस्करण