SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपसंहार] [१११ द्रव्यों से-पदार्थों से विरत नहीं हुए हैं अर्थात् जिन्होंने अदत्तादान का परित्याग नहीं किया है, वे अत्यन्त एवं विपुल सैकड़ों दुःखों की आग में जलते रहते हैं। अदत्तादान का यह फलविपाक है, अर्थात् अदत्तादान रूप पापकृत्य के सेवन से बँधे कर्मों का उदय में पाया विपाक-परिणाम है। यह इहलोक में भी और परलोक-आगामी भवों में भी होता है । यह सुख से रहित है और दुःखों की बहुलता-प्रचुरता वाला है। अत्यन्त भयानक है। अतीव प्रगाढ कर्मरूपी रज वाला है । बड़ा ही दारुण है, कर्कश कठोर है, असातामय है और हजारों वर्षों में इससे पिण्ड छूटता है, किन्तु इसे भोगे विना छुटकारा नहीं मिलता। विवेचन-मूल पाठ का आशय स्पष्ट है। मूल में अदत्तादान के फलविपाक को 'अप्पसुहो' कहा गया है । यही पाठ हिंसा आदि के फलविपाक के विषय में भी प्रयुक्त हुआ है। 'अल्प' शब्द के दो अर्थ घटित होते हैं-अभाव और थोड़ा। यहाँ दोनों अर्थ घटित होते हैं, अर्थात् अदत्तादान का । रहित है, जैसा कि पूर्व के विस्तत वर्णन से स्पष्ट है। जब 'अल्प' का अर्थ 'थोडा' स्वीकार किया जाता है तो उसका आशय समझना चाहिए-लेशमात्र, नाममात्र, पहाड़ बराबर दुःखों की तुलना में राई भर । यहाँ अर्थ और कामभोग को लोक में 'सार' कहा गया है, सो सामान्य सांसारिक प्राणियों की दृष्टि से ही समझना चाहिए । पारमार्थिक दृष्टि से तो अर्थ अनर्थों का मूल है और कामभोग प्राशीविष सर्प के सदृश हैं। उपसंहार ७९-एवमाहंसु णायकुल-णंदणो महप्पा जिणो उ वीरवर-णामधेज्जो कहेसी य अदिण्णादाणस्स फलविवागं । एवं तं तइयं पि अदिण्णादाणं हर-दह-मरण-भय-कलुस-तासण-परसंतिकभेज्जलोहमूलं एवं जाव चिरपरिगय-मणुगयं दुरंतं । . ॥ तइयं अहम्मदारं समत्तं ॥ त्तिबेमि ॥ ७९- ज्ञातकुलनन्दन, महान्-आत्मा वीरवर (महावीर) नामक जिनेश्वर भगवान् ने इस प्रकार कहा है । अदत्तादान के इस तीसरे (आस्रव-द्वार के) फलविपाक को भी उन्हीं तीर्थंकर देव ने प्रतिपादित किया है। यह अदत्तादान, परधन-अपहरण, दहन, मृत्यु, भय, मलिनता, त्रास, रौद्रध्यान एवं लोभ का मूल है । इस प्रकार यह यावत् चिर काल से (प्राणियों के साथ) लगा हुआ है । इसका अन्त कठिनाई से होता है। ॥ तृतीय अधर्म-द्वार समाप्त ॥
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy