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________________ ११०] [प्रश्नव्याकरणसूत्र : श्रु. १, अ. ३ योनियों का स्वरूप विस्तारपूर्वक जानने के लिए तथा उनके अन्य प्रकार से भेद समझने के लिए प्रज्ञापनासूत्र का नौवाँ पद देखना चाहिए। भोगे विना छुटकारा नहीं ७८ प्रासापास-पडिबद्धपाणा अत्थोपायाण-काम-सोक्खे य लोयसारे होति अपच्चंतगा य सटठ वि य उज्जमंता ताहिवसुज्जत्त-कम्मकय-दुक्खसंठवियसिपिडसंचयपरा पक्खीण्णदव्वसारा णिच्चं अधुव-धण-धण्णकोस-परिभोगविवज्जिया रहिय-कामभोग-परिभोग-सव्वसोक्खा परसिरिभोगोवभोगणिस्साणमगणपरायणा वरागा अकामियाए विणेति दुक्खं । णेव सुहं णेव णिव्वुइं उवलभंति अच्चंतविउल-दुक्खसय-संपलित्ता परस्स दव्वेहि जे अविरया। एसो सो अदिण्णादाणस्स फलविवागो, इहलोइयो परलोइयो अप्पसुहो बहुदुक्खो महन्भनो बहुरयप्पगाढो दारुणो कक्कसो असानो वाससहस्सेहिं मुच्चइ, ण य प्रवेयइत्ता प्रत्थि उ मोक्खोति । ७८- अदत्तादान का पाप करने वालों के प्राण भवान्तर में भी अनेक प्रकार की आशानोंकामनाओं-तष्णाओं के पाश में बँधे रहते हैं। लोक में सारभूत अनुभव किये जाने वाले अथवा माने जाने वाले अर्थोपार्जन एवं कामभोगों सम्बन्धी सुख के लिए अनुकूल या प्रबल प्रयत्न करने पर भी उन्हें सफलता प्राप्त नहीं होती,--अावश्यकता एवं निराशा ही हाथ लगती है । उन्हें प्रतिदिन उद्यम करने पर भी-कड़ा श्रम करने पर भी बड़ी कठिनाई से सिक्थपिण्ड-इधर-उधर बिखराफेंका भोजन ही नसीब होता है-थोड़े-से दाने ही मिलते हैं। वे प्रक्षीणद्रव्यसार होते हैं अर्थात् कदाचित कोई उत्तम द्रव्य मिल जाए तो वह भी नष्ट हो जाता है या उनके इकटठे किए हए दाने भी क्षीण हो जाते हैं। अस्थिर धन, धान्य और कोश के परिभोग से वे सदैव वंचित रहते हैं । काम-शब्द और रूप तथा भोग-- गन्ध, स्पर्श और रस के भोगोपभोग के सेवन से—उनसे प्राप्त होने वाले समस्त सुख से भी वंचित रहते हैं। परायी लक्ष्मी के भोगोपभोग को अपने अधीन बनाने के प्रयास में तत्पर रहते हुए भी वे बेचारे-दरिद्र न चाहते हुए भी केवल दु:ख के ही भागी होते हैं। उन्हें न तो सुख नसीब होता है, न शान्ति-मानसिक स्वस्थता या सन्तुष्टि । इस प्रकार जो पराये पंचिदियतिरिएसु, हय-गय रयणा हवंति उ सुहायो सेसाप्रो असुहायो, सुहवण्णेगेंदियादीया ।। ४ ।। देविंद-चक्कवट्टित्तणाई, मोत्तु च तित्थयरभाव । अणगारभाविया विय, सेसाप्रो अणंतसो पत्ता ॥ ५ ॥ अर्थात --शीत आदि चौरासी लाख योनियों में कतिपय शुभ और शेष अशूभ योनियाँ होती हैं। शुभ योनियां इस प्रकार हैं-असंख्य वर्ष की आयु वाले मनुष्य (युगलिया), संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्यों में राजा-ईश्वर आदि, तीर्थकरनामकर्म के बन्धक सर्वोत्तम शुभ योनि वाले हैं। संख्यात वर्ष की आयु वालों में भी उच्चकूलसम्पन्न शुभ योनि वाले हैं, अन्य सब अशुभ योनि वाले हैं। देवों में किल्विष जाति वालों की अशुभ और शेष शुभ हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में हस्तिरत्न और अश्वरत्न शुभ हैं, शेष अशुभ हैं। एकेन्द्रियादि में शुभ वर्णादि वाले शुभयोनिक और शेष अशुभयोनिक है। देवेन्द्र, चक्रवर्ती, तीर्थंकर और भावितात्मा अनगारों को छोड़ कर शेष जीवों ने अनन्त-अनन्त वार योनियाँ प्राप्त की है। -प्रश्नव्या. सैलाना.
SR No.003450
Book TitleAgam 10 Ang 10 Prashna Vyakaran Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages359
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_prashnavyakaran
File Size25 MB
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