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बनवासी चोरी
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इधर-उधर लुढकते हुए विह्वल मनुष्यों के विलाप के कारण वह युद्ध बड़ा ही करुणाजनक होता है। उस युद्ध में मारे गए योद्धाओं के इधर-उधर भटकते घोड़े, मदोन्मत्त हाथी और भयभीत मनुष्य, मूल से कटो हुई ध्वजाओं वाले टूटे-फूटे रथ, मस्तक कटे हुए हाथियों के धड़-कलेवर, विनष्ट हुए शस्त्रास्त्र और बिखरे हुए आभूषण-अलंकार इधर-उधर पड़े होते हैं। नाचते हुए बहुसंख्यक कलेवरों--धड़ों पर काक और गीध मंडराते रहते हैं। इन काकों और गिद्धों के झुड के झुड घूमते हैं तब उनकी छाया के अन्धकार के कारण वह युद्ध गंभीर बन जाता है। ऐसे (भयावह-घोरातिघोर) संग्राम में (नृपतिगण) स्वयं प्रवेश करते हैं केवल सेना को ही युद्ध में नहीं झोंकते। (देवलोक) और पृथ्वी को विकसित करते हुए, परकीय धन की कामना करने वाले वे राजा साक्षात् श्मशान समान, अतीव रौद्र होने के कारण भयानक और जिसमें प्रवेश करना अत्यन्त कठिन है, ऐसे संग्राम रूप संकट में चल कर अथवा आगे होकर प्रवेश करते हैं।
विवेचन-प्रस्तुत पाठ में संग्राम की भयानकता का स्पष्ट चित्र उपस्थित किया गया है। पर-धन के इच्छुक राजा लोग किस प्रकार नर-संहार के लिए तत्पर हो जाते हैं ! यह वर्णन अत्यन्त सजीव है । इसके स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है । वनवासी चोर
. ६६–अवरे पाइक्कचोरसंघा सेणावइ-चोरवंद-पागड्डिका य अडवी-देसदुग्गवासी कालहरितरत्तपोतसुक्किल-अणेगसचिध-पट्टबद्धा परविसए अभिहणंति लुद्धा धणस्स कज्जे ।
६६-इनके (पूर्वसूत्र में उल्लिखित राजाओं के) अतिरिक्त पैदल चल कर चोरी करने वाले चोरों के समूह होते हैं । कई ऐसे (चोर) सेनापति भी होते हैं जो चोरों को प्रोत्साहित करते हैं । चोरों के यह समूह दुर्गम अटवी-प्रदेश में रहते हैं। उनके काले, हरे, लाल, पीले और श्वेत रंग के सैकड़ों चिह्न होते हैं, जिन्हें वे अपने मस्तक पर लगाते हैं। पराये धन के लोभी वे चोर-समुदाय दूसरे प्रदेश में जाकर धन का अपहरण करते हैं और मनुष्यों का घात करते हैं।
विवेचन-ज्ञातासूत्र आदि कथात्मक आगमों में ऐसे अनेक चोरों और सेनापतियों का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है, जो विषम दुर्गम अटवी में निवास करते और लूटपाट करते थे। पाँच-पाँच सौ सशस्त्र चोर उनके दल में थे जो मरने-मारने को सदा उद्यत रहते थे। उनका सैन्यबल इतना सबल होता था कि राजकीय सेना को भी पछाड़ देता था। ऐसे ही चोरों एवं चोर-सेनापतियों का यहाँ उल्लेख किया गया है। समुद्री डाके
६७-रयणागरसागरं उम्मीसहस्समाला-उलाउल-वितोयपोत-कलकलेत-कलियं पायालसहस्स'-वायवसवेगसलिल-उद्धम्ममाणदगरयरयंधकारं वरफेणपउर-धवल-पुलंपुल-समुट्ठियट्टहासं मारुयविच्छुभमाणपाणियं जल-मालुप्पीलहुलियं अवि य समंतप्रो खुभिय-लुलिय-खोखुन्भमाण-पक्खलियचलिय-विउलजलचक्कवाल- महाणईवेगतुरियापूरमाणगंभीर-विउल-पावत्त-चवल-भममाणगुप्पमाणुच्छलंत पच्चोणियत्त-पाणिय-पधावियखर-फरुस-पयंडवाउलियसलिल-फुटुंत वीइकल्लोलसंकुलं महा१. "पायालकलससहस्स"-पाठ पूज्य श्री घासीलालजी म. वाली प्रति में है।