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प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात]
[३३ पहारेत्थ गमणाए।
- तदनन्तर अभयकुमार स्नान करके, बलिकर्म (गृहदेवता का पूजन) करके, यावत् [कौतुक, मंगल एवं प्रायश्चित्त करके] समस्त अलंकारों से विभूषित होकर श्रेणिक राजा के चरणों में वन्दना करने के लिए जाने का विचार करता है-रवाना होता है।
५९-तएणं से अभयकुमारे जेणेव सेणिए राया तणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सेणियं रायं ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासइ। पासइत्ता अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए (पत्थिए) मणोगते संकप्पे समुप्पज्जित्था।
___ तत्पश्चात् अभयकुमार श्रेणिक राजा के समीप आता है। आकर श्रेणिक राजा को देखता है कि इनके मन के संकल्प को आघात पहुंचा है। यह देखकर अभयकुमार के मन में इस प्रकार का यह आध्यात्मिक अर्थात् आत्मा संबंधी, चिन्तित, प्रार्थित (प्राप्त करने को इष्ट) व मनोगत (मन में रहा हुआ) संकल्प उत्पन्न होता है
६०-अन्नया य ममं सेणिए राया एजमाणं पासति, पासइत्ता आढाति, परिजाणाति, सक्कारेइ, सम्माणेइ, आलवति, संलवति, अद्धासणेणं उवणिमंतेति मत्थयंसि अग्घाति, इयाणिं ममं सेणिए राया णो आढाति, णो परियाणाइ, णो सक्कारेइ, णो सम्माणेइ, णो इट्टाहिं कंताहिं पियाहिं मणुनाहिं ओरालाहिं वग्गूहिं आलवति, संलवति, नो अद्धासणेणं उवणिमंतेति, णो मत्थयंसि अग्घाति य, किं पि ओहयमणसंकप्पे झियायति। तं भवियव्वं णं एत्थ कारणेणं। तं सेयं खलु मे सेणियं रायं एयमढे पुच्छित्तए।एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं वद्धावेड, वद्धावइत्ता एवं वयासी
_ 'अन्य समय श्रेणिक राजा मुझे आता देखते थे तो देखकर आदर करते, जानते, वस्त्रादि से सत्कार करते, आसनादि देकर सन्मान करते तथा आलाप-संलाप करते थे, आधे आसान पर बैठने के लिए निमंत्रण करते और मेरे मस्तक को सूंघते थे। किन्तु आज श्रेणिक राजा मुझे न आदर दे रहे हैं, न आया जान रहे हैं, न सत्कार करते हैं, न इष्ट कान्त प्रिय मनोज्ञ और उदार वचनों से आलाप-संलाप करते हैं, न अर्ध आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करते हैं और न मस्तक को सूंघते हैं। उनके मन के संकल्प को कुछ आघात पहुँचा है, अतएव चिन्तित हो रहे हैं। इसका कोई कारण होना चाहिए। मुझे श्रेणिक राजा से यह बात पूछना श्रेय (योग्य) है।' अभयकुमार इस प्रकार विचार करता है और विचार कर जहाँ श्रेणिक राजा थे, वहीं आता है। आकर दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर आवर्त, अंजलि करके जय-विजय से वधाता है। वधाकर इस प्रकार कहता है
६१-तुब्भेणंताओ! अन्नया ममं एजमाणं पासित्ता आढाह, परिजाणह जाव मत्थयंसि अग्घायह, आसणेणं उपणिमंतेह, इयाणिं ताओ! तुब्भे ममं नो आढाह जाव नो आसणेणं उवणिमंतेह। किं पिओहयमणसंकप्पा जाव झियायह।तं भवियव्वं ताओ! एत्थ कारणेणं। तओ तुब्भे मम ताओ! एयं कारणं अगूहेमाणा असंकेमाणा अनिण्हवेमाणा अपच्छाएमाणा जहाभूतमवितहमसंदिद्धं एयमट्ठमाइक्खह। तए णं हं तस्स कारणस्स अंतगमणं गमिस्सामि।
हे तात! आप अन्य समय मुझे आता देखकर आदर करते, जानते, यावत् मेरे मस्तक को सूंघते थे