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[ज्ञाताधर्मकथा
अम्मयाओ, जाव' वेभारगिरिपायमूलं आहिंडमाणीओ डोहलं विणिन्ति। तं जइ णं अहमवि जाव डोहलं विणिज्जामि।तए णंहं सामी! अयमेयारूवंसि अकाल-दोहलंसिअविणिजमाणंसिओलुग्गा जाव अट्टज्झाणोवगया झियायामि। एएणं अहं कारणेणं सामी! ओलुग्गा जाव अट्टल्झाणोवगया झियायामि।'
___तत्पश्चात् श्रेणिक राजा द्वारा शपथ सुनकर धारिणी देवी ने श्रेणिक राजा से इस प्रकार कहास्वामिन्! मुझे वह उदार आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाला महास्वप्न आया था। उसे आए तीन मास पूरे हो चुके हैं, अतएव इस प्रकार का अकाल-मेघ संबंधी दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे माताएँ धन्य हैं और वे माताएँ कृतार्थ हैं, यावत् जो वैभार, पर्वत की तलहटी में भ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। अगर मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करूं तो धन्य होऊँ। इस कारण हे स्वामिन् ! मैं इस प्रकार के इस दोहद के पूर्ण न होने से जीर्ण जैसी, जीर्ण शरीर वाली हो गई हूँ; यावत् आर्त्तध्यान करती हुई चिन्तित हो रही हूँ। स्वामिन् ! जीर्ण-सी-यावत् आर्तध्यान से युक्त होकर चिन्ताग्रस्त होने का यही कारण है।
५७–तए णं से सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमढं सोच्चा णिसम्म धारिणिं देवि एवं वदासी–'माणं तुमं देवाणुप्पिए!ओलुग्गा जाव झियाहि, अहं णं तहा करिस्सामि जहा णं तुब्भं अयमेयारूवस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सइ'त्ति कट्ट धारिणिं देविं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुनहिं मणामाहि वग्गूहिं समासासेइ। समासासित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणामेव उवागच्छइ।उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाहिमुहे सन्निसन्ने।धारिणीए देवीए एयं अकालदोहलं बहूहिं आएहि य उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य पारिणामियाहि य चउव्विहाहिं बुद्धीहिं अणुचिंतेमाणे अणुचिंतेमाणे तस्स दोहलस्स आयं वा उवायं वा ठिई वा उप्पत्तिं वा अविंदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ।
तत्पश्चात् श्रेणिक राजा ने धारिणी देवी से यह बात सुनकर और समझकर, धारिणी देवी से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिये! तुम जीर्ण शरीर वाली मत होओ, यावत् चिन्ता मत करो। मैं वैसा करूंगा अर्थात् कोई ऐसा उपाय करूंगा जिससे तुम्हारे इस अकाल-दोहद की पूर्ति हो जाएगी।' इस प्रकार कहकर श्रेणिक ने धारिणी देवी को इष्ट (प्रिय), कान्त (इच्छित), प्रिय (प्रीति उत्पन्न करने वाली), मनोज्ञ (मनोहर) और मणाम (मन को प्रिय) वाणी से आश्वासन दिया। आश्वासन देकर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी, वहाँ आया। आकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठा। धारिणी देवी के इस अकाल-दोहद की पूर्ति करने के लिए बहुतेरे आयों (लाभों) से, उपायों से, औत्पत्तिकी बुद्धि से, वैनयिक बुद्धि से, कार्मिक बुद्धि से, पारिणामिक बुद्धि से इस प्रकार चारों तरफ की बुद्धि से बार-बार विचार करने लगा। परन्तु विचार करने पर भी उस दोहद के लाभ को, उपाय को, स्थिति को और निष्पत्ति को समझ नहीं पाता, अर्थात् दोहदपूर्ति का कोई उपाय नहीं सूझता। अतएव श्रेणिक राजा के मन का संकल्प नष्ट हो गया और वह भी यावत् चिन्ताग्रस्त हो गया। अभयकुमार का आगमन
५८-तयाणंतरं अभए कुमारेण्हाए कयबलिकम्मे जाव सव्वालंकारविभूसिए पायवंदए
१. प्र. अ. सूत्र ४४