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________________ परिशिष्ट १] [५५३ ग्यारहवाँ अध्ययन १-जह दावद्दवतरुवणमेवं साहू जहेव दीविच्चा। वाया तह समणा इयसपक्खवयणाई दुसहाई॥ २-जह सामुद्दयवाया तहण्णतित्थाइकटुयवयणाई। कुसुमाइसंपया जह, सिवमग्गाराहणा तह उ॥ ३-जह कुसुमाइविणासो, सिवमग्गविराहणा तहा नेया। जह दीववाउजोगे, बहु इड्ढी ईसि य अणिड्ढी॥ ४-तह साहम्मिय-वयणाण सहणमाराहणा भवे बहुया। इयराणमसहणे पुण, सिवमग्गविराहणा थोवा॥ ५-जह जलहि-वाउजोगे, थेविड्ढी बहुयरा यऽणिड्ढी य। तह परपक्ख-क्खमणे, आराहणमीसी बहु इयरं॥ ६-जह उभयवाउविरहे, सव्वा तरुसंपया विणटुत्ति। __ अणिमित्तोभयमच्छररूवेह विराहणा तह य ॥ ७-जह उभयवाउजोगे, सव्वसमिड्ढी वणस्स संजाया। तह उभयवयणसहणे, सिवमग्गाराहणा वुत्ता॥ ८-ता पुनसमणधम्माराहणचित्ती सया महासत्तो। __सव्वेणवि कीरंति, सहेज सव्वंपि पडिकूलं॥ १-जैसे दावद्दव जाति के वृक्ष कहे गए हैं, वैसे यहाँ साधु समझना चाहिए। जैसे द्वीप सम्बन्धी वायु है, वैसे यहाँ श्रमण आदि (श्रमणी, श्रावक, श्राविका) रूप स्वपक्ष के दुस्सह वचन जानने चाहिएँ। २-जैसे सामुद्रिक पवन है, वैसे यहाँ अन्यतीर्थिकों के कटुक वचन आदि जानना। वृक्षों में पुष्प आदि सम्पत्ति के समान यहाँ मोक्षमार्ग की आराधना समझना। ३-पुष्प आदि समृद्धि के अभाव को यहाँ मोक्षमार्ग की विराधना जान लेना चाहिए। जैसे द्वीप सम्बन्धी वायु के सद्भाव में अधिक समृद्धि और थोड़ी असमृद्धि होती है ४-उसी प्रकार साधर्मिकों के दुर्वचनों को सहन करने से बहुत आराधना होती है, किन्तु अन्ययूथिकों के दुर्वचनों को सहन न करने से मोक्षमार्ग की किंचित् विराधना भी होती है। ५-जैसे सामुद्रिक वायु का संयोग मिलने पर किंचित् समृद्धि और बहुतर असमृद्धि होती है, उसी प्रकार परपक्ष (अन्ययूथिकों) के वचन सहन करने से थोड़ी आराधना होती है, (स्वयूथिकों के वचन न सहने से) विराधना अधिक होती है।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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