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[ज्ञाताधर्मकथा
६-जैसे दोनों-द्वैपिक और सामुद्रिक प्रकार के पवन के अभाव में समस्त तरु-सम्पदा (पत्रपुष्प-फल आदि) का विनाश हो जाता है, वैसे ही निष्कारण दोनों के प्रति मत्सरता होना यहाँ विराधना है।
७-जैसे दोनों प्रकार के पवन का योग प्राप्त होने पर वन-वृक्षसमूह को सर्व प्रकार की पूर्ण समृद्धि प्राप्त होती है, उसी प्रकार दोनों पक्षों (स्वयूथिकों, अन्ययूथिकों) के दुर्वचनों को सहन करने से मोक्षमार्ग की पूर्ण आराधना कही गई है।
८-अतएव जिसके चित्त में पूर्ण श्रमणधर्म की आराधना करने की अभिलाषा है, वह सभी प्रकार के मनुष्यों द्वारा किए जाने वाले प्रतिकूल व्यवहार, वचनप्रयोग, उपसर्ग आदि को सहन करे।
बारहवाँ अध्ययन १-मिच्छत्तमोहियमणा पावपसत्तावि पाणिणो विगुणा।
फरिहोदगं व गुणिणो हवंति वरगुरुप्पसायाओ॥ १-जिनका मन मिथ्यात्व से मूढ़ बना हुआ है, जो पापों में अतीव आसक्त हैं और गुणों से शून्य हैं वे प्राणी भी श्रेष्ठ गुरु का प्रसाद पाकर गुणवान् बन जाते हैं, जैसे (सुबुद्धि अमात्य के प्रसाद से) खाई का गन्दा पानी शुद्ध, सुगंधसम्पन्न और उत्तम जल बन गया।
तेरहवाँ अध्ययन १-संपन्नगुणो वि जओ, सुसाहु-संसग्गवजिओ पायं। पावइ गुणपरिहाणिं, दंदुरजीवोव्व मणियारो॥
अथवा २-तित्थयरवंदणत्थं चलिओ भावेण पावए सग्गं।
जह ददुरदेवेणं, पत्तं वेमाणियसुरत्तं॥ १-कोई भव्य जीव गुण-सम्पन्न होकर भी, कभी-कभी सुसाधु के सम्पर्क से जब रहित होता है तो गुणों की हानि को प्राप्त होता है। सुसाधु-समागम के अभाव में उसके गुणों का ह्रास हो जाता है, जैसे नन्द मणिकार का जीव (सम्यक्त्वगुण की हानि के कारण) दर्दुर (मंडूक) के पर्याय में उत्पन्न हुआ। अथवा इस अध्ययन का उपनय यों समझना चाहिए
तीर्थंकर भगवान् की वन्दना के लिए रवाना हुआ प्राणी (भले भगवान् के समक्ष न पहुँच पाए, मार्ग में ही उसका निधन हो जाए, तो भी वह) भक्ति भावना के कारण स्वर्ग प्राप्त करता है। यथा-दर्दुर (मेंढ़क) मात्र भावना के कारण वैमानिक देव-पर्याय को प्राप्त करने में समर्थ हो सका।
चौदहवाँ अध्ययन १-जावन दुक्खं पत्ता, माणब्भंसं य पाणिणो पायं।
ताव न धम्मं गेण्हंति, भावओ तेयलीसुयव्व॥