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[ज्ञाताधर्मकथा देखा, उसी प्रकार संसार से भयभीत जन धर्मकथा (धर्मकथा करने वाले उपदेशक) को देखते हैं।
३-जैसे उस पुरुष ने उन्हें बतलाया कि यह (रत्न देवी) घोर दुःखों का कारण है और उससे निस्तार पाने का उपाय शैलक-यक्ष के सिवाय अन्य नहीं है।
४-उसी प्रकार अविरति के स्वभाव को जानने वाले धर्मोपदेशक भव्य जीवों से कहते हैंइन्द्रियों के विषय समस्त दुःखों के हेतु हैं, अतः वे जीवों को उनसे विरत करते हैं।
५-दुःखों से पीड़ित प्राणियों के लिए जिनेन्द्र द्वारा प्ररूपित चारित्र ही शरण है। वही आनन्दस्वरूप निर्वाण का साधन है।
६-जैसे उन वणिकों को विस्तृत सागर तरना था, उसी प्रकार भव्य जीवों को विशाल संसार तरना है। जैसे उन्हें अपने घर पहुँचना था, उसी प्रकार यहाँ मोक्ष में पहुँचना समझना चाहिए।
७-देवी द्वारा मोहितमति (जिनरक्षित) शैलक-यक्ष की पीठ से भ्रष्ट होकर सहस्रों हिंसक जन्तुओं से व्याप्त सागर में निधन को प्राप्त हुआ।
८-उसी प्रकार अविरति से बाधित होकर जो जीव चारित्र से भ्रष्ट हो जाता है, वह दुःख रूपी हिंसक जन्तुओं से व्याप्त, भयंकर स्वरूप वाले अपार संसार-सागर में पड़ता है।
९-जैसे देवी के प्रलोभन-मोहजनक वचनों से क्षुब्ध न होने वाला जिनपालित अपने स्थान पर पहुँच कर जीवन और सुखों को अथवा जीवन संबन्धी सुखों को प्राप्त कर सका, उसी प्रकार चारित्र में स्थित एवं विषयों से क्षुब्ध न होने वाला साधु निर्वाण प्राप्त करता है।
दशम अध्ययन १-जह चंदो तह साहू, राहुवरोहो जहा तह पमाओ।
वण्णाई गुणगणो जह तहा खमाई समणधम्मा॥ २-पुण्णो वि पइदिणं जह, हायंतो सव्वहा ससी नस्से।
तह पुण्णचरित्तो वि हु, कुसीलसंसग्गिमाईहिं॥ ३-जणियपमाओ साहू, हायंतो पइदिणं खमाईहिं।
जायइ नट्ठचरित्तो, तत्तो दुक्खाइं पावेइ॥ ४-हीणगुणो वि हु होउं, सुहगुरुजोगाइ जणियसंवेगो।
पुण्णसरूवो जायइ, विवड्ढमाणो ससहरो ब्व॥ १-यहाँ चन्द्रमा के समान साधु और राहु-ग्रहण के समान प्रमाद जानना चाहिये। चन्द्रमा के वर्ण, कान्ति आदि गुणों के समान साधु के क्षमा आदि दस श्रमणधर्म जानना चाहिए।
२-३-(पूर्णिमा के दिन) परिपूर्ण होकर भी चन्द्रमा प्रतिदिन घटता-घटता (अमावस्या को) सर्वथा लुप्त हो जाता है, उसी प्रकार पूर्ण चारित्रवान् साधु भी कुशीलों के संसर्ग आदि कारणों से प्रमादयुक्त होकर प्रतिदिन क्षमा आदि गुणों से हीन होता-होता अन्त में चारित्रहीन बन जाता है। इससे उसे दुःखों की प्राप्ति होती है।
४-कोई साधु भले हीन गुण वाला हो किन्तु सद्गुरु के ससंर्ग से उसमें संवेग उत्पन्न हो जाता है तो वह चन्द्रमा के समान क्रमशः वृद्धि पाता हुआ पूर्णता प्राप्त कर लेता है।