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बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी इसी प्रकार मृत कन्या के मांस को भक्षण कर जीवित रहने का वर्णन प्राप्त होता है। विशुद्धिमग्गा और भिक्षा समुच्चय में भी श्रमण को इसी तरह आहार लेना चाहिये यह बताया गया है । मनुस्मृति आपस्तम्बधर्म सूत्र ( २. ४. ९. १३) वासिष्ठ (२. ७. २१) बोधायन धर्म सूत्र (२. ७. ३१. ३२) में संन्यासियों के आहार संबंधी चर्चा इसी प्रकार मिलती है ।
प्रस्तुत अध्ययन के अनुसार तस्करों के द्वारा ऐसी मंत्रशक्ति का प्रयोग किया जाता था, जिससे संगीन ताले अपने आप खुल जाते थे । इससे यह भी ज्ञात होता है कि महावीरयुग में ताले आदि का उपयोग धनादि की रक्षा के लिए होता था । विदेशी यात्री मेगास्तनीज, ह्वेनसांग, फाहियान, आदि ने अपने यात्राविवरणों में लिखा है कि भारत में कोई भी ताला आदि का उपयोग नहीं करता था, पर आगम साहित्य में ताले के जो वर्णन मिलते हैं वे अनुसंधित्सुओं के लिए अन्वेषण की अपेक्षा रखते हैं।
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उन्नीसवें अध्ययन में पुण्डरीक और कण्डरीक की कथा है। जब राजा महापद्म श्रमण बने तब उनका ज्येष्ठपुत्र पुण्डरीक राज्य का संचालन करने लगा और कण्डरीक युवराज बना । पुनः महापद्म मुनि वहां आये तो कण्डरीक ने श्रमणधर्म स्वीकार किया। कुछ समय बाद कण्डरीक मुनि वहां आये, उस समय वे दाहज्वर से ग्रसीत थे। महाराजा पुण्डरीक ने औषधि-उपचार करवाया। स्वस्थ होने पर भी जब कंडरीक मुनि वहीं जमे रहे तब राजा ने निवेदन किया कि श्रमणमर्यादा की दृष्टि से आपका विहार करना उचित है। किन्तु कण्डरीक के मन में भोगों के प्रति आसक्ति उत्पन्न हो चुकी थी । वे कुछ समय परिभ्रमण कर पुनः वहाँ आ गये। पुण्डरीक के समझाने पर भी वे न समझे तब कण्डरीक को राज्य सौंपकर पुण्डरीक ने कण्डरीक का श्रमणवेष स्वयं धारण कर लिया। तीन दिन की साधना से पुण्डरीक तेतीस सागर की स्थिति का उपभोग करने वाला, सर्वार्थसिद्धि विमान में देव बना और कण्डरीक भोगों में आसक्त होकर तीन दिन में आयु पूर्ण कर तेतीस सागर की स्थिति में सातवें नरक का मेहमान बना। जो साधक वर्षों तक उत्कृष्ट साधना करता रहे किन्तु बाद में यदि वह साधना से च्युत हो जाता है तो उसकी दुर्गति हो जाती है और जिसका अन्तिम जीवन पूर्ण साधना में गुजरता है वह स्वल्पकाल में भी सद्गति को वरण कर लेता है।
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इस तरह प्रथम श्रुतस्कंध में विविध दृष्टान्तों के द्वारा अहिंसा, अस्वाद, श्रद्धा, इन्द्रियविजय प्रभृति आध्यात्मिक तत्त्वों का बहुत ही संक्षेप व सरल शैली में वर्णन किया गया है। कथावस्तु की वर्णनशैली अत्यन्त चित्ताकर्षक है । ऐतिहासिक दृष्टि से भी जो शोधार्थी शोध करना चाहते हैं, उनके लिए पर्याप्त सामग्री है। उस समय की परिस्थिति, रीति-रिवाज, खान-पान, सामाजिक स्थितियों और मान्यताओं का विशद विश्लेषण भी इस आगम में प्राप्त होता है। शैली की दृष्टि से धर्मनायकों का यह आदर्श रहा है। भाषा और रचना शैली की अपेक्षा जीवननिर्माण की शैली का प्रयोग करने में वे दक्ष रहे हैं। आधुनिक कलारसिक आगम की धर्मकथाओं में कला को देखना अधिक पसन्द करते हैं। आधुनिक कहानियों के तत्त्वों से और शैली से उनकी समता करना चाहते हैं। पर वे भूल जाते हैं कि ये कथाएं बोधकथाएँ हैं। इनमें जीवननिर्माण की प्रेरणा है, न कि कला के लिए कलाप्रदर्शन । यदि वे बोध प्राप्त करने की दृष्टि से इन कथाओं का पारायण करेंगे तो उन्हें इनमें बहुत कुछ मिल सकेगा । रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कि दूध में ज़ामन डालने के पश्चात् उस दूध को छूना नहीं चाहिए और
न कुछ समय तक उस दूध को हिलाना चाहिए। जो दूध जामन डालने के पश्चात् स्थिर रहता है वही बढ़िया जमता है। तरह साधक को साधना में पूर्ण विश्वास रखना चाहिए। दो अण्डेवाले रूपक में यह स्पष्ट किया गया है और यह भी बताया गया है कि साधक को शीघ्रता भी नहीं करनी चाहिए। शीघ्रता करने से उसी तरह
१. संयुक्तनिकाय, २, पृ. ९७
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