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हानि होती है जैसे कूर्म की कथा में बताया गया है। उत्कृष्ट साधना के शिखर पर आरूढ व्यक्ति जरा-सी असावधानी से नीचे गिर सकता है, जैसे शैलक राजर्षि। इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि शिष्य का क्या कर्तव्य होना चाहिए? गरु साधना से स्खलित हो जाये तथापि शिष्य को स्वयं जागृत रहकर गुरु की शुश्रूषा करनी चाहिए, जैसे पंथक ने स्वयं का उद्धार किया और गुरु का भी।
मल्ली भगवती ने भोग के कंटकाकीर्ण पथ पर बढ़ने वाले और रूप लावण्य के पीछे दीवाने बने हुए राजाओं को विशुद्ध सदाचार का मार्ग प्रदर्शित किया। शरीर के अन्दर में रही हुई गन्दगी को बताया और उनके हृदय का परिवर्तन किया। बौद्ध भिक्षुणी शुभा पर एक कामुक व्यक्ति मुग्ध हो गया था। भिक्षुणी ने अपने नाखूनों से अपने नेत्र निकालकर उसके हाथ में थमा दिये और कहा-जिन नेत्रों पर तुम मुग्ध हो वे नेत्र तुम्हें समर्पित कर रही हूँ। पर उस कथा से भी मल्ली भगवती की कथा अधिक प्रभावशाली है। प्रस्तुत आगम में जो कथाएं आई हैं, उनमें कहीं पर भी सांप्रदायिकता या संकुचितता नहीं है। यद्यपि ये कथाएं जैन श्रमण-श्रमणियों को लक्ष्य में लेकर कही गई हैं, पर ये सार्वभौमिक हैं। सभी धर्म और सम्प्रदायों के अनुयायियों के लिए परम उपयोगी हैं। सभी धर्म सम्प्रदायों का अंतिम लक्ष्य षड्रिपुओं को जीतना और मोक्ष प्राप्त करना है और मोक्ष प्राप्त करने के लिए ऐश्वर्य के प्रति विरक्ति, इन्द्रियों का दमन व शमन आवश्यक है। यही इन कथाओं का हार्द है।
हम पूर्व ही लिख चुके हैं कि ज्ञातासूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध में धर्मकथाएँ हैं । इसमें चमरेन्द्र, बलीन्द्र, धरणेन्द्र, पिशाचेन्द्र, महाकालेन्द्र, शक्रेन्द्र, ईशानेन्द्र आदि की अग्रमहिषियों के रूप में उत्पन्न होने वाली सा की कथाएं हैं। इनमें से अधिकांश साध्वियाँ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षित हुई थीं। ऐतिहासिक दृष्टि से इन साध्वियों का अत्यधिक महत्त्व है। इस श्रुतस्कंध में पार्श्वकालीन श्रमणियों के नाम उपलब्ध हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) काली (२) राजी (३) रजनी (४) विद्युत (५) मेघा, ये आमलकप्पा नगर की थीं और इन्होंने आर्या पुष्पचूला के पास दीक्षा ग्रहण की थी। (६) शुंभा (७) निशुंभा (८) रंभा (९) निरंभा और (१०) मदना ये श्रावस्ती की थीं और पार्श्वनाथ के उपदेश से दीक्षा ग्रहण की थी। (११) इला (१२) सतेरा (१३) सौदामिनी (१४) इन्द्रा (१५) घना और (१६) विधुता ये वाराणसी की थीं और श्रेष्ठियों की लड़कियाँ थीं। इन्होंने भी पार्श्वनाथ के उपदेश से दीक्षा ग्रहण की थी। (१७) रुचा (१८) सुरुचा (१९) रुचांशा (२०) रुचकावती (२१) रुचकान्ता (२२) रुचप्रभा ये चम्पा नगरी की थीं। इन्होंने भी पार्श्वनाथ की परम्परा में दीक्षा ग्रहण की थी। (२३) कमला (२४) कमलप्रभा (२५) उत्पला (२६) सुदर्शना (२७) रूपवती (२८) बहुरूपा (२९) सुरूपा (३०) सुभगा (३१) पूर्णा (३२) बहुपुत्रिका (३३) उत्तमा (३४) भारिका (३५) पद्मा (३६) वसुमती (३७) कनका (३८) कनकप्रभा (३९) अवतंसा (४०) केतुमती (४१) वज्रसेना (४२) रतिप्रिया (४३) रोहिणी (४४) नौमिका (४५)ह्री (४६)पुष्पवती (४७) भुजगा (४८) भुजंगवती (४९) माकच्छा (५०) अपराजिता (५१) सुघोषा (५२) विमला (५३) सुस्वरा (५४) सरस्वती ये बत्तीस कुमारिकाएं नागपुर की थीं। भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश से साधना के पथ पर अपने कदम बढ़ाये थे।
एक बार भगवान् पार्श्व साकेत नगरी में पधारे। वहाँ बत्तीस कुमारिकाओं ने दीक्षा ग्रहण की। भगवान् पार्श्व अरुक्खुरी नगरी में पधारे। उस समय (८७) सूर्यप्रभा (८८) आतपा (८९) अर्चिमाली (९०) प्रभंकरा आदि ने त्यागमार्ग को ग्रहण किया। एक बार भगवान् पार्श्व मथुरा पधारे। उस समय (९१) चन्द्रप्रभा (९२) दोष्णाभा (९३) अर्चिमाली और (९४) प्रभंकरा ने दीक्षा ग्रहण की। भगवान् श्रावस्ती पधारे जहाँ पर (९५) पद्मा और (९६) शिवा ने संयम मार्ग की ओर कदम बढ़ाया। भगवान् पार्श्व हस्तिनापुर पधारे। उस समय (९७) सती और (९८) अंजू ने श्रमणधर्म स्वीकार किया। भगवान् कांपिल्यपुर पधारे, वहाँ पर (९९) रोहिणी और (१००) नवमिका ने प्रव्रज्या ग्रहण की। भगवान् साकेत नगर में पुनः पधारे तो वहाँ पर (१०१) अचला