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आज गंगा उतनी विशाल नहीं है। गंगा और उसकी सहायक नदियों से अनेक विशालकाय नहरें निकल चुकी हैं। आधुनिक सर्वेक्षण के अनुसार गंगा ९५५७ मील लम्बे मार्ग को तय कर बंग सागर में मिलती है। वह वर्षाकालीन बाढ़ से १७,००,००० घन फुट पानी का प्रति सेकण्ड प्रस्राव करती है। इस अध्ययन के प्रमुख पात्र श्रीकृष्ण, पाण्डव, द्रौपदी आदि जैन और वैदिक आदि परम्परा के बहुचर्चित और आदरणीय व्यक्ति रहे हैं, जिनके जीवन प्रसंगों से सम्बन्धित अनेक विराटकाय ग्रंथ विद्यमान हैं। प्रस्तुत अध्ययन में श्रीकृष्ण के नरसिंह रूप का भी वर्णन है। नरसिंहावतार की चर्चा श्रीमद् भागवत में है जो विष्णु के एक अवतार थे, पर श्रीकृष्ण ने कभी नरसिंह का रूप धारण किया हो, ऐसा प्रसंग वैदिक परंपरा के ग्रंथों में देखने में नहीं आया, यहाँ पर उसका सजीव चित्रण हुआ है।
सत्रहवें अध्ययन में जंगली अश्वों का उल्लेख है। कुछ व्यापारी हस्तिशीर्ष नगर से व्यापार हेतु नौकाओं में परिभ्रमण करते हए कालिक द्वीप में पहुँचते हैं। वहाँ वे चाँदी, स्वर्ण और हीरे की खदानों के साथ श्रेष्ठ नस्ल के घोड़े देखते हैं। इसके पूर्व अध्ययनों में भी समुद्रयात्रा के उल्लेख आये हैं। ज्ञाता में पोतपट्टन और जलपत्तन शब्द व्यवहृत हुए हैं जो समुद्री बन्दरगाह के अर्थ में हैं, वहाँ पर विदेशी माल उतरता था। कहीं-कहीं पर बेलातट और पोतस्थान शब्द मिलते हैं। पोतवहन शब्द जहाज के लिए आया है। उस युग में जहाज दो तरह के होते थे। एक माल ढोनेवाले, दूसरे यात्रा के लिए। बन्दरगाह तक हाथी या शकट पर चढ़कर लोग जाते थे। समुद्रयात्रा में प्रायः तूफान आने पर जहाज डगमगाने लगते। किंकर्तव्यविमूढ हो जाते, क्योंकि उस समय नौंकाओं में दिशासूचक यंत्र नहीं थे। इसलिए आसन्न संकट से बचने के लिए इन्द्र, स्कंद आदि देवताओं का स्मरण भी करते थे। पर यह स्पष्ट है कि भारतीय व्यापारी अत्यन्त कुशलता के साथ समुद्री व्यापार करना जानते थे। उन्हें सामुद्रक मार्गों का भी परिज्ञान था। वाहन अल्प थे और आजकल की तरह सुदृढ और विराटकाय भी नहीं थे। इसलिए हवाओं की प्रतिकूलता से जहाजों को अत्यधिक खतरा रहता था। तथापि वे निर्भीकता से एक देश से दूसरे देश में घूमा करते थे। ये व्यापारी भी बहुमूल्य पदार्थों को लेकर हस्तिशीर्ष नगर पहुँचे और राजा को उन श्रेष्ठ अश्वों के सम्बन्ध में बताया। राजा अपने अनुचरों के साथ घोड़ों को लाने का वणिकों को आदेश देता है। व्यापारी अश्वों को पकड़ लाने के लिए वल्लकी, भ्रामरी, कच्छभी, बंभा, षटभ्रमरी विविध प्रकार की वीणाएँ,. विविध प्रकार के चित्र, सुगंधित पदार्थ, गुडिया-मत्स्यंका शक्कर, मत्यसंडिका, पुष्पोत्तर और पद्मोत्तर प्रकार की शर्कराएं और विविध प्रकार के वस्त्र आदि के साथ पहुंचे और उन लुभावने पदार्थों से उन घोड़ों को अपने अधीन किया। स्वतन्त्रता से घूमने वाले घोड़े पराधीन बन गये। इसी तरह जो साधक विषयों के अधीन होते हैं वे भी पराधीनता के पंक में निमग्न हो जाते हैं। विषयों की आसक्ति साधक को पथभ्रष्ट कर देती है।
प्रस्तुत अध्ययन में गद्य के साथ भी पद्य प्रयुक्त हुए हैं। बीस गाथाएं हैं। जिनमें पुनः उसी बात को उद्बोधन के रूप में दुहराया गया है।
अठारहवें अध्ययन में सषमा श्रेष्ठ-कन्या का वर्णन है। वह धन्ना सार्थवाह की पुत्री थी। उसकी देखभाल के लिए चिलात दासीपुत्र को नियुक्त किया गया। वह बहुत ही उच्छृखल था। अत: उसे निकाल दिया गया। वह अनेक व्यसनों के साथ तस्कराधिपति बन गया। सुषमा का अपहरण किया। श्रेष्ठी और उसके पुत्रों ने उसका पीछा किया। उन्हें अटवी में चिलात द्वारा मारी गई सुषमा का मृत देह प्राप्त हुआ। वे अत्यंत क्षुधा-पिपासा से पीड़ित हो चुके थे। अतः सुषमा के मृत देह का भक्षण कर अपने प्राणों को बचाया। सुषमा के शरीर का मांस खाकर उन्होंने अपने जीवन की रक्षा की। उन्हें किंचिन्मात्र भी उस आहार के प्रति राग नहीं था। उसी तरह षट्काय के रक्षक श्रमण-श्रमणियाँ भी संयमनिर्वाह के लिए आहार का उपयोग करते हैं, रसास्वादन हेतु नहीं असह्य क्षुधा वेदना होने पर आहार ग्रहण करना चाहिए। आहार का लक्ष्य संयम-साधना है। १. हिन्दी विश्वकोष, नागरी प्रचारिणी सभा