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[ज्ञाताधर्मकथा वह जीर्णा (शरीर से जीर्ण होने के कारण वृद्धा) थी और जीर्ण होते हुए कुमारी थी। उसके स्तन नितंब प्रदेश तक लटक गये थे। वर (पति बनने वाले पुरुष) उससे विरक्त हो गये थे अर्थात् कोई उसे चाहता नहीं था, अतएव वह वर-रहित अविवाहित रह रही थी।
१४–तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जहा वृद्धमाणसामी, णवरं णवहत्थुस्सेहे सोलसहिं समणसाहस्सीहिं अट्ठत्तीसाए अजियासाहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे जाव अंबसालवणे समोसढे, परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ।
उस काल और उस समय में पुरुषादांनीय (पुरुषों में आदेय नामकर्म वाले) एवं धर्म की आदि करने वाले पार्श्वनाथ अरिहंत थे। वे वर्धमान स्वामी के समान थे। विशेषता केवल इतनी थी कि उनका शरीर नौ हाथ ऊँचा था तथा वे सोलह हजार साधुओं और अड़तीस हजार साध्वियों से परिवृत थे। यावत् वे पुरुषादानीय पार्श्व तीर्थंकर आम्रशालवन में पधारे। वन्दना करने के लिए परिषद् निकली, यावत् वह परिषद् भगवान् की उपासना करने लगी।
१५-तए णं सा काली दारिया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणी हट्ट जाव हियया जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ।उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी–‘एवं खलु अम्मयाओ! पासे अरहा पुरिसादाणीए आइगरे जाव विहरइ, तं इच्छामि णं अम्मयाओ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायवंदिया गमित्तए।' .
'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेहि।'
तत्पश्चात् वह काली दारिका इस कथा का अर्थ प्राप्त करके अर्थात् भगवान् के पधारने का समाचार जानकर हर्षित और संतुष्ट हृदय वाली हुई। जहाँ माता-पिता थे, वहाँ गई। जाकर दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोली-'हे माता-पिता! पार्श्वनाथ अरिहन्त पुरुषादानीय, धर्मतीर्थ की आदि करने वाले यावत् यहाँ विचर रहे हैं। अतएव हे माता-पिता! आपकी आज्ञा हो तो मैं पार्श्वनाथ अरिहन्त पुरुषादानीय के चरणों में वन्दना करने जाना चाहती हूँ।'
माता-पिता ने उत्तर दिया-'देवानुप्रिये! तुझे जैसे सुख उपजे, वैसा कर। धर्म कार्य में विलम्ब मत कर।'
१६-तए णं सा कालिया दारिया अम्मापिईहिं अब्भणुन्नाया समाणी हट्ठ जाव हियया ण्हाया कयबलिकम्मा कयकोउस-मंगल-पायच्छित्ता सुद्धप्पवेसाइं मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिया अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा चेडिया-चक्कवाल-परिकिण्णा साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा।
तत्पश्चात् वह काली नामक दारिका का हृदय माता-पिता की आज्ञा पाकर हर्षित हुआ। उसने स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया तथा साफ, सभा के योग्य, मांगलिक और श्रेष्ठ वस्त्र धारण किये। अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को भूषित किया। फिर दासियों के समूह से परिवृत होकर अपने गृह से निकली। निकल कर जहाँ बाहर की उपस्थानशाला (सभा) थी, वहाँ आई। आकर