________________
उन्नीसवाँ अध्ययन : पुण्डरीक ]
[ ५०३
लालसा न हो और आत्महित की गहरी लगन हो । कण्डरीक में यह कुछ भी शेष नहीं रहा था । अतएव कुछ समय तक वह स्थविर के पास रह कर और सांसारिक लालसाओं से पराजित होकर फिर लौट आया। वह लौट कर राजप्रासाद की अशोकवाटिका में जा कर बैठ गया । लज्जा के कारण प्रासाद में प्रवेश करने का उसे साहस न हुआ।
धाय-माता ने उसे अशोकवाटिका में बैठा देखा । जाकर पुण्डरीक से कहा । पुण्डरीक अन्त: पुर के साथ उसके पास गया और पूर्व की भाँति उसकी सराहना की। किन्तु इस बार पुण्डरीक की वह युक्ति काम न आई। कण्डरीक चुपचाप बैठा रहा। तब पुण्डरीक ने उससे पूछा - भगवन् ! आप भोग भोगना चाहते हैं ?
कण्डरीक ने लज्जा और संकोच को त्याग कर 'हाँ' कह दिया ।
पुण्डरीक राजा ने उसी समय कण्डरीक का राज्याभिषेक किया, उसे राजगद्दी दे दी और कण्डरीक के संयमोपकरण लेकर स्वयं दीक्षित हो गए। उन्होंने प्रतिज्ञा धारण की कि स्थविर महाराज के दर्शन करके एवं उनके निकट चातुर्याम धर्म अंगीकार करने के पश्चात् ही मैं आहार- पानी ग्रहण करूंगा । वे पुण्डरीकिणी नगरी का परित्याग करके, विहार करके स्थविर भगवान् के निकट जाने को प्रस्थान कर गए।
कण्डरीक अपने अपथ्य आचरण के कारण अल्प काल में ही आर्त्तध्यानपूर्वक मृत्यु को प्राप्त हुआ । तेंतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकों में, सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न हुआ।
यह उत्थान के पश्चात् पतन की करुण कहानी है।
पुण्डरीक मुनि उग्र साधना करके, अन्त में समाधिपूर्वक शरीर का त्याग करके तेंतीस सागरोपम की स्थिति वाले देवों में सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए। तदनन्तर वे मुक्ति के भागी होंगे।
यह पतन से उत्थान की ओर जाने का उत्कृष्ट उदाहरण है ।