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उन्नीसवाँ अध्ययन : पुण्डरीक
सार : संक्षेप
प्रस्तुत अध्ययन का कथानक मानव-जीवन में होने वाले उत्थान और पतन का तथा पतन और उत्थान का सजीव चित्र उपस्थित करता है। जो कथानक यहाँ प्रतिपादित किया गया है, वह महाविदेह क्षेत्र का है।
महाविदेह क्षेत्र के पूर्वीय भाग में पुष्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी राजधानी है। राजधानी साक्षात् देवलोक के समान मनोहर एवं सुन्दर है। बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी है। वहाँ के राजा महापद्म के दो पुत्र थे-पुण्डरीक और कण्डरीक।
एक बार वहाँ धर्मघोष स्थविर का पदार्पण हुआ। धर्मदेशना श्रवण कर और संसार की असारता का अनुभव करके राजा महापद्म दीक्षित हो गए। पुण्डरीक राजसिंहासन पर आसीन हुए। महापद्म मुनि संयम और तपश्चर्या से आत्मा विशुद्ध करके यथासमय सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए।
किसी समय दूसरी बार पुनः स्थविर का आगमन हुआ। इस बार धर्मोपदेश श्रवण करने से राजकुमार कण्डरीक को वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसने राजा पुण्डरीक से दीक्षा की अनुमति मांगी। पुण्डरीक ने उसे राजसिंहासन प्रदान करने की पेशकश की, मगर कण्डरीक ने उसे स्वीकार नहीं किया। आखिर वह दीक्षित हो गया।
दीक्षा के पश्चात् स्थविर के साथ कण्डरीक मुनि देश-देशान्तर में विचरने लगे, किन्तु रूखा-सूखा आहार करने के कारण उनका शरीर रुग्ण हो गया। स्थविर जब पुनः पुण्डरीकिणी नगरी में आए तो राजा पुण्डरीक ने कण्डरीक मुनि को रोगाक्रान्त देखा। पुण्डरीक ने स्थविर मुनि से निवेदन किया-भंते ! मैं कण्डरीक मुनि की चिकित्सा कराना चाहता हूँ, आप मेरी यानशाला में पधारें।
स्थविर यानशाला में पधार गए। उचित चिकित्सा होने से कण्डरीक मुनि स्वस्थ हो गए। स्थविर मुनि वहाँ से अन्यत्र विहार कर गए परन्तु कण्डरीक मुनि राजसी भोजन-पान में ऐसे आसक्त हो गए कि विहार करने का नाम ही न लेते। पुण्डरीक उनकी आसक्ति और शिथिलता को समझ गए । कण्डरीक की आत्मा को जागृत करने के लिए एक बार पुण्डरीक ने उनके निकट जाकर वन्दन-नमस्कार करके कहा-'देवानुप्रिय, आप धन्य हैं, आप पुण्यशाली हैं, आपका मनुष्यजन्म सफल हुआ है, आपने अपना जीवन धन्य बनाया है। मैं पुण्यहीन हूँ, भाग्यहीन हूँ कि अभी तक मेरा मोह नहीं छूटा, मैं संसार में फँसा हूँ।'
कण्डरीक को यह कथन रुचिकर तो नहीं हुआ फिर भी वह लज्जा के कारण, बिना इच्छा ही विहार कर गया। मगर संयम का पालन तो तभी संभव है जब अन्तरात्मा में सच्ची विरक्ति हो, इन्द्रिय-विषयों के प्रति