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________________ अठारहवाँ अध्ययन: सुंसुमा ] [ ४९९ मरण-शरण हो जाना, सम्पूर्ण कुटुम्ब का निर्मूल हो जाना था । ऐसी स्थिति में धन्य सार्थवाह ने 'सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति पण्डितः ' की लोकोक्ति का अनुसरण करते हुए अपने वध का प्रस्ताव उपस्थित किया । ज्येष्ठ पुत्र ने उसे स्वीकार करने में अपनी असमर्थता प्रकट की और अपने वध की बात सुझाई । अन्य भाइयों ने उसकी बात भी मान्य नहीं की। सभी के वध का प्रस्ताव दूसरे किसी भाई को स्वीकार्य नहीं हुआ । यह प्रसंग हमारे समक्ष कौटुम्बिक संबन्ध के विषय में अतीव स्पृहणीयं आदर्श प्रस्तुत करता है। पुत्रों के प्रति पिता का, पिता के प्रति पुत्रों का, भाई के प्रति भाई का स्नेह कितना प्रगाढ़ और उत्सर्गमय होना चाहिए। पारस्परिक प्रीति की मधुरिमा इस वर्णन से स्पष्ट है। प्रत्येक, प्रत्येक की प्राण-रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने का अभिलाषी है। इससे अधिक त्याग और बलिदान अन्य क्या हो सकता है ! वस्तुतः यह चित्रण भारतीय - साहित्य में असाधारण है, साहित्य की अमूल्य निधि है । अन्तिम निर्णय ३९ – तए णं धण्णे सत्थवाहे पंचपुत्ताणं हियइच्छियं जाणित्ता ते पंच पुत्ते एवं वयासी- 'माणं अम्हेपुत्ता! एगमवि जीवियाओ ववरोवेमो, एस णं सुंसमाए दारियाए शरीरे णिप्पाणे जाव [ निच्चेट्ठे ] जीवविप्पजढे, तं सेयं खलु पुत्ता! अम्हं सुंसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेत् । तए णं अम्हे तेणं आहारेणं अवत्थद्धा समाणा रायगिहं संपाणिस्सामो ।' तत्पश्चात् धन्य-सार्थवाह ने पांचों पुत्रों के हृदय की इच्छा जान कर पांचों पुत्रों से इस प्रकार कहा'पुत्रो ! हम किसी को भी जीवन से रहित न करें। यह सुंसुमा का शरीर निष्प्राण, निश्चेष्ट और जीवन द्वारा त्यक्त है, अतएव हे पुत्रो ! सुसुमा दारिका के मांस और रुधिर का आहार करना हमारे लिए उचित होगा। हम लोग उस आहार से स्वस्थ होकर राजगृह को पा लेंगे।' ४० -तए णं ते पंच पुत्ता धण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वृत्ता समाणा एयमट्टं पडिसुर्णेति । तए णं धण्णे सत्थवाहे पंचहिं पुत्तेहिं सद्धिं अरणिं करेइ, करित्ता सरगं च करेइ, करित्ता सरएणं अरणिं महइ, महित्ता अग्गिं पाडेइ, पाडित्ता अग्गिं संधुक्खेइ, संधुक्खित्ता दारुयाइं पक्खेवेइ, पक्खेवित्ता अग्गिं पज्जालेइ, पज्जालित्ता सुंसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं य आहारेइ । धन्य - सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर उन पांच पुत्रों ने यह बात स्वीकार की । तब धन्य सार्थवाह पांचों पुत्रों के साथ अरणि की (अरणि काष्ठ में गड़हा किया) फिर शर बनाया (अरणि की लम्बी लकड़ी तैयार की)। दोनों तैयार करके शर से अरणि का मंथन किया। मंथन करके अग्नि उत्पन्न की। फिर अग्नि धौंकी, उसमें लकड़ियाँ डालीं, अग्नि प्रज्वलित की। प्रज्वलित करके सुंसुमा दारिका का मांस पका कर उस मांस का और रुधिर का आहार किया। राजगृह में वापसी ४१ - तए णं आहारेणं अवत्थद्धा समाणा रायगिहं नयरि संपत्ता मित्तणाइं नियग-सयणसंबन्धि - परिजणं अभिसमण्णागया, तस्स य विउलस्स धणकणगरयण जाव' आभागी जाया वि होत्था । १. अ. १८, सूत्र २१
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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