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________________ [ ज्ञाताधर्मकथा तए णं से धण्णे सत्थवाहे सुंसुमाए दारियाए बहूइं लोइयाई जाव [ मयकिच्चाई करेइ, करेत्ता काणं ] विगयसोए जाए यावि होत्था । उस आहार से स्वस्थ होकर वे राजगृह नगरी तक पहुँचे। अपने मित्रों एवं ज्ञातिजनों, स्वजनों, परिजनों आदि से मिले और विपुल धन, कनक, रत्न आदि के तथा धर्म, अर्थ एवं पुण्य के भागी हुए। तत्पश्चात् धन्य-सार्थवाह ने सुंसुमा दारिका के बहुत-से लौकिक मृतक कृत्य किए, तदनन्तर कुछ काल बीत जाने पर वह शोकरहित हो गया । ५०० ] ४२ - तेणं कालेणं तेणं समएण समणे भगवं महावीरे गुणसीलए चेइए समोसढे । से णं धण्णे सत्थवाहे संपत्ते, धम्मं सोच्चा पव्वइए, एक्कारसंगवी, मासियाए संलेहणाए सोहम्मे उववण्णो, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ । उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर राजगृह के गुणशील चैत्य में पधारे। उस समय धन्य-सार्थवाह वन्दना करने के लिए भगवान् के निकट पहुँचा । धर्मोपदेश सुन कर दीक्षित हो गया । क्रमशः ग्यारह अंगों का वेत्ता मुनि हो गया । अन्तिम समय आने पर एक मास की संलेखना करके सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यवन करके महाविदेह क्षेत्र में संयम धारण करके सिद्धि प्राप्त करेगा । निष्कर्ष ४३ – जहा वि य णं जंबू ! धण्णेणं सत्थवाहेणं णो वण्णहेउं वा, रूवहेडं वा, नो विसयहेउं वा, सुंसुमाए दारियाए मंससोणिए आहारिए नन्नत्थ एगाए रायगिहं संपावणट्ठाए । एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स सुक्कासवस्स सोणियासवस्स जाव' अवस्सं विप्पजहियव्वस्स नो वण्णहेउं वा, नो रूवहेडं वा, नो बलहेडं वा, नो विसयहेडं वा आहारं आहारेइ, नन्नत्थ एगाए सिद्धिगमणसंपावणट्टयाए, से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं, बहूणं सावयाणं बहूणं सावयाणं अच्चणिज्जे जाव वीईवइस्सइ । हे जम्बू ! जैसे उस धन्य - सार्थवाह ने वर्ण के लिए, रूप के लिए, बल के लिए अथवा विषय के लिए सुंसुमा दारिका के मांस और रुधिर का आहार नहीं किया था, केवल राजगृह नगर को पाने के लिए ही आहार किया था । इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! हमारा जो साधु या साध्वी वमन को झराने वाले, पित्त को झराने वाले, शुक्र को झराने वाले, शोणित को झराने वाले यावत् अवश्य ही त्यागने योग्य इस औदारिक शरीर के वर्ण के लिए, बल के लिए अथवा विषय के लिए आहार नहीं करते हैं, केवल सिद्धिगति को प्राप्त करने के लिए आहार करते हैं, वे इसी भव में बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं के अर्चनीय होते हैं एवं संसार - कान्तार को पार करते हैं । १. अ. १८ सूत्र ३२
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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