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________________ ४९६] [ज्ञाताधर्मकथा के लिए अकेले ही अपने पांचों पुत्रों के साथ धन्य-सार्थवाह को जाना पड़ता है। ___ यह सत्य है कि प्रस्तुत कथानक एक ज्ञात-उदाहरण मात्र ही है तथापि इस वर्णन से उस समय की शासन-व्यवस्था का जो चित्र उभरता है, उस पर आधुनिक काल का कोई भी विचारशील व्यक्ति गौरव का अनुभव नहीं कर सकता। इस वृत्तान्त से हमारा यह भ्रम दूर हो जाना चाहिए कि अतीत का सभी कुछ अच्छा था। यहाँ आचार्यवर्य श्री हेमचन्द्र का कथन स्मरण आता है-'न कदाचिदनीदृशं जगत्' अर्थात् जगत् कभी ऐसा नहीं था, ऐसी बात नहीं है। वह तो सदा ऐसा ही रहता है। ३२-एवामेव समणाउसो! जाव पव्वइए समाणे इमस्स ओरालियसरीरस्स वंतासवस्स जाव [पित्तासवस्स खेलासवस्स सुक्कासवस्स सोणियासवस्स दुरुय-उस्सास-निस्सासस्स दुरुयमुत्त-पुरीस-पूय-बहुपडिपुण्णस्स उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाणग-वंत-पित्त-सुक्कसोणियसंभवस्स अधुवस्स अणितियस्स असासयस्स सडण-पडण-विद्धंसणधम्मस्स पच्छा पुरं चणं अवस्स-विप्पजहणस्स]वण्णहेउं जाव आहारं आहारेइ, सेणं इहलोए चेव बहूणं समणाणं समणीणं सावयाणं सावियाणं हीलणिजे जाव अणुपरियट्टिस्सइ, जहा व से चिलाए तक्करे। इसी प्रकार हे आयष्मन श्रमणो! हमारे जो साध या साध्वी प्रव्रजित होकर जिससे वमन बहता-झरता है [पित्त, कफ, शुक्र एवं शोणित बहता है, जिससे अमनोज्ञ उच्छ्वास-नि:श्वास निकलता है, जो अशुचि मूत्र, पुरीष, मवाद से भरपूर है, जो मल, मूत्र, कफ, रेंट (नासिका मल), वमन, पित्त, शुक्र, शोणित की उत्पत्ति का स्थान है, अध्रुव, अनित्य, अशाश्वत है, सड़ना, पड़ना तथा विध्वस्त होना जिसका स्वभाव है और जिसका आगे या पीछे अवश्य ही त्याग करना पड़ेगा, ऐसे अपावन एवं] विनाशशील इस औदारिक शरीर के वर्ण (रूपसौन्दर्य) के लिए यावत् आहार करते हैं, वे इसी लोक में बहुत-से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र बनते हैं और दीर्घ संसार में पर्यटन करते हैं, जैसे चिलात चोर अन्त में दुःखी हुआ, (उसी प्रकार वे भी दुःखी होते हैं)। धन्य का शोक ३३–तए णं से धण्णे सत्थवाहे पंचहिं पुत्तेहिं अप्पछ8 चिलायं परिधाडेमाणे परिधाडेमाणे तण्हाए छुहाए य संते तंते परितंते नो संचाएइ चिलायंचोरसेणावइंसाहित्थिं गिण्हित्तए। सेणं तओपडिनियत्तइ, पडिनियत्तित्ता जेणेव सा सुंसुमा दारिया चिलाएणं जीवियाओ ववरोविया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुंसुमं दारियं चिलाएणं जीवियाओ ववरोवियं पासइ, पासित्ता परसुनियत्तेवचंपगपायवेनिव्वत्तमहेव्व इंदलट्ठी विमुक्कबंधणे धरणितलंसि सव्वंगेहि धसत्ति पडिए। तत्पश्चात् धन्य-सार्थवाह पांच पुत्रों के साथ आप छठा स्वयं चिलात के पीछे दौड़ता-दौड़ता प्यास से और भूख से श्रान्त हो गया, ग्लान हो गया और बहुत थक गया। वह चोरसेनापति चिलात को अपने हाथ से पकड़ने में समर्थ न हो सका। तब वह वहाँ से लौट पड़ा, लौट कर वहाँ आया जहाँ सुंसुमा दारिका को चिलात ने जीवन से रहित कर दिया था। वहाँ आकर उसने देखा कि बालिका सुंसुमा चिलात के द्वारा मार डाली गई
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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