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अठारहवाँ अध्ययन : सुंसुमा]
[४८९ वह शीलहीन,व्रतहीन, गुणहीन, प्रत्याख्यान और पोषधोपवास से रहित तथा बहुत-से द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सरीसृप-रेंग कर चलने वाले जंतुओं का घात, वध और उच्छेदन करने वाला था।] इन सब दोषों और पापों के कारण वह अधर्म की ध्वजा था। बहुत नगरों में उसका (चोरी करने की बहादुरी का) यश फैला हुआ था। वह शूर था, दृढ़ प्रहार करने वाला, साहसी और शब्दवेधी (शब्द के आधार पर वाण चला कर लक्ष्य का वेधन करने वाला ) था। वह उस सिंहगुफा में पांच सौ चोरों का अधिपतित्व करता हुआ रहता था।
१२-तए णं से विजए तक्करे चोरसेणावई बहूणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयगाण य संधिच्छेयगाण य खत्तखणगाण य रायावगारीण य अणधारगाण य बालघायगाण य वीसंभघायगाण य जूयकाराण य खंडरक्खाण य अन्नेसिंच बहूणं छिन्न-भिन्न बाहिराहयाणं कुडंगे यावि होत्था।
वह चोरों का सेनापति विजय तस्कर दूसरे बहुतेरे चोरों के लिए, जारों के लिए, राजा के अपकारियों के लिए, ऋणियों के लिए, गठकटों के लिए, सेंध लगाने वालों के लिए, खात खोदने वालों के लिए, बालघातकों के लिए, विश्वासघातियों के लिए, जुआरियों के लिए तथा खण्डरक्षकों (दंडपाशिकों) के लिए और मनुष्यों के हाथ-पैर आदि अवयवों को छेदन-भेदन करने वाले अन्य लोगों के लिए कुडंग (बाँस की झाड़ी) के समान शरणभूत था। अर्थात् जैसे अपराधी लोग राजभय से बाँस की झाड़ी में छिप जाते हैं अतः बाँस की झाड़ी उनके लिए शरणरूप होती है, उसी प्रकार विजय चोर भी अन्यायी-अत्याचारी लोगों का आश्रयदाता था।
१३-तए णं से विजए तक्करे चोरसेणावई रायगिहस्स नगरस्स दाहिणपुरच्छिमंजणवयं बहूहिं गामघाएहि य नगरघाएहि य गोग्गहणेहि य वंदिग्गहणेहि य पंथकुट्टणेहि य खत्तखणणेहि य उवीलेमाणे उवीलेमाणे विद्धंसेमाणे विद्धंसेमाणे णित्थाणं णिद्धणं करेमाणे विहरइ।
वह चोर सेनापति विजय तस्कर राजगृह नगर के दक्षिणपूर्व (अग्निकोण) में स्थित जनपद-प्रदेश को, ग्राम के घात द्वारा, नगरघात द्वारा, गायों का हरण करके, लोगों को कैद करके, पथिकों को मारकूट कर तथा सेंध लगा कर पुनः-पुन: उत्पीड़ित करता हुआ तथा विध्वस्त करता हुआ, लोगों को स्थानहीन एवं धनहीन बना रहा था। चोर-सेनापति की शरण में
१४-तएणं से चिलाए दासचेडे रायगिहे णयरे बहूहिं अत्थाभिसंकीहि य चोराभिसंकीहि य दाराभिसंकीहि य धणिएहि य जूयकरेहि य परब्बभवमाणे परब्भवमाणे रायगिहाओ नयराओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सीहगुहा चोरपल्ली तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विजयं चोरसेणावई उपसंपज्जिता णं विहरइ।
तत्पश्चात् वह चिलात दास-चेट राजगृह नगर में बहुत-से अर्थाभिशंकी (हमारा धन यह चुरा लेगा, ऐसी शंका करने वालों), चौराभिशंकी (चोर समझने वालों), दाराभिशंकी (यह हमारी स्त्री को ले जायगा, ऐसी शंका करने वालों), धनिकों और जुआरियों द्वारा पराभव पाया हुआ–तिरस्कृत होकर राजगृह