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________________ ४८८ ] [ ज्ञाताधर्मकथा १० - तए णं रायगिहस्स णगरस्स अदूरसामंते दाहिणपुरत्थिमे दिसिभाए सीहगुहा नामं चोरपल्ली होत्था, विसमगिरिकडग-कोडंब - संनिविट्ठा वंसीकलंक-पागार - परिक्खित्ता छिण्णसेलविसमप्पवाय - फरिहोवगूढा एगदुवारा अणेगखंडी विदितजणणिग्गम-पवेसा अब्भितरपाणिया सुदुल्लभजलपेरंता सुबहुस्स वि कूवियबलस्स आगयस्स दुप्पहंसा यावि होत्था । उस समय राजगृह नगर से न अधिक दूर और न अधिक समीप प्रदेश में, दक्षिणपूर्व दिशा (आग्नेयकोण) में सिंहगुफा नामक एक चोरपल्ली थी। वह पल्ली विषम गिरिनितंब के प्रान्त भाग में बसी हुई थी। बांस की झाड़ियों के प्राकार से घिरी हुई थी। अलग-अलग टेकरियों के प्रपात (दो पर्वतों के बीच के गड़हे) रूपी परिखा से युक्त थी। उसमें जाने-आने के लिए एक ही दरवाजा था, परन्तु भाग जाने के लिए छोटेछोटे अनेक द्वार थे। जानकार लोग ही उसमें से निकल सकते और उसमें प्रवेश कर सकते थे। उसके भीतर ही पानी था। उस पल्ली से बाहर आस-पास में पानी मिलना अत्यन्त दुर्लभ था । चुराये हुए माल को छीनने के लिए आई हुई सेना भी उस पल्ली का कुछ नहीं बिगाड़ सकती थी । ऐसी थी वह चोरपल्ली ! ११ - तत्थ णं सीहगुहाए चोरपल्लीए विजए णामं चोरसेणावई परिवसइ अहम्मिए जाव [ अहम्मिट्ठे अहम्मक्खाई अहम्माणुए अहम्मपलोई अहम्मपलज्जणे अहम्मसील-समुदायारे अहम्मेण चेव वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ । हण - छिंद-भिंद - वियत्तए लोहियपाणी चंडे रुद्दे खुद्दे साहस्सिए उक्कंचण-वंचण-माया - नियडि - कवड-कूड - साइ- संपयोगबहुले निस्सीले निव्वए निग्गुणे निप्पच्चक्खाणपोसहोववासे बहूणं दुप्पय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खि- सरिसिवाणं घायाए वहाए उच्छायणाए ] अहम्मकेऊ समुट्ठिए बहुनगरणिग्गयजसे सूरे दढप्पहारी साहसिए सद्दवेही । सेणं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाणं आहेवच्चं जाव विहरइ । उस सिंहगुफा पल्ली में विजय नामक चोर सेनापति रहता था । वह अधार्मिक, [ अत्यन्त क्रूर कर्मकारी होने के कारण अधर्मिष्ठ, अधर्म की बात करने वाला, अधर्म - प्रलोकी - अधर्म पर ही दृष्टि रखने वाला, अधर्म - कृत्यों का अनुरागी, अधर्मशील और अधर्माचारी था तथा अधर्म से ही जीवन-निर्वाह कर रहा था। इसका घात कर डालो, इसे काट डालो, इसे भेद डालो, ऐसी दूसरों को प्रेरणा किया करता था । उसके हाथ रुधिर से लिप्त रहते थे। वह चंड- तीव्र रोष वाला, रौद्र - नृशंस, क्षुद्र - क्षुद्रकर्म करने वाला, साहसिकपरिणाम विचार किए बिना किसी भी काम में कूद पड़ने वाला था । प्रायः उत्कंचन, वंचन, माया, निकृति ( वकवृत्ति से दूसरों को ठगना अथवा एक मायाचार को ढँकने के लिए दूसरी माया करना), कपट (वेष परिवर्तन करना आदि), कूट (न्यूनाधिक तोलना - नापना) एवं स्वाति - अविश्रंभ का ही प्रयोग किया करता था। १. वाचनान्तर में इस प्रकार का पाठ है - ' जत्थ चउरंगबलनियुत्तावि कूवियबला हय-महिय - पवरवीर घाइय-निवडिय - चिंध-धय-वडाया कीरंति । ' - अभयदेव टीका पृ. २४५ (पू.) तात्पर्य यह कि उस चोरपल्ली में रहने वाले चोर इतने बलिष्ठ और सशक्त थे कि चुराया हुआ माल छीनने के लिए यदि सबल चतुरंगिणी सेना भेजी जाय तो उसे भी वे हत और मथित कर सकते थे-उनका मान-मर्दन कर सकते थे और उसकी ध्वजा - पताका नष्ट कर सकते थे।
SR No.003446
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Literature, & agam_gyatadharmkatha
File Size14 MB
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