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अठारहवाँ अध्ययन : सुंसुमा]
[४८७ ७–तए णं ते बहवे दारगा य दारिगा य डिंभगा य डिभिया य कुमारा य कुमारिया य रोयमाणा य जाव अम्मापिऊणं णिवेदेति।
तए णं ते आसुरुत्ता रुट्ठा कुविया चंडिक्किया मिसिमिसेमाणा जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता बहूहिं खिज्जणाहि य जाव' एयमटुं णिवेदेति।
तब वे बेहुत लड़के-लड़कियाँ, बच्चे-बच्चियाँ, कुमार और कुमारिकाएँ रोते-चिल्लाते गये, यावत् माता-पिताओं से उन्होंने यह बात कह सुनाई।
तब वे माता-पिता एकदम क्रुद्ध हुए, रुष्ट, कुपित, प्रचण्ड हुए, क्रोध से जल उठे और धन्य सार्थवाह के पास पहुँचे। पहुँच कर बहुत खेदयुक्त वचनों से उन्होंने यह बात उससे कही। दास-चेटक का निष्कासन
८-तए णं से धण्णे सत्थवाहे बहूणं दारगाणंदारियाणं डिंभयाणं डिभियाणं कुमारगाणं कुमारियाणं अम्मापिऊणं अंतिए एयमद्वंसोच्चाआसुरुत्तेचिलायंदासचेडं उच्चावयाहिं आउसणाहिं आउसइ, उद्धंसइ, णिब्भच्छेइ, णिच्छोडेइ, तज्जेइ, उच्चावयाहिं तालणाहिं तालेइ, साओ गिहाओ णिच्छुभइ।
• तब धन्य-सार्थवाह बहुत-से लड़कों, लड़कियों, बच्चों, बच्चियों, कुमारों और कुमारिकाओं के माता-पिताओं से यह बात सुन कर एकदम कुपित हुआ। उसने ऊँचे-नीचे आक्रोश-वचनों से चिलात दासचेट पर आक्रोश किया अर्थात् खरी-खोटी सुनाई, उसका तिरस्कार किया, भर्त्सना की, धमकी दी, तर्जना की और ऊँची-नीची ताड़नाओं से ताड़ना की और फिर उसे अपने घर से बाहर निकाल दिया। दास-चेटक दुर्व्यसनी बना
९-तएणं से चिलाए दासचेडे साओ गिहाओ णिच्छूढे समाणे रायगिहे नयरे सिंघाडए जाव पहेसुय देवकुलेसुय सभासुयपवासुयजयखलएसुय वेसाघरेसुय पाणघरएसुय सुहंसुहेणं परियट्टइ।
तए णं चिलाए दासचेडे अणोहट्टिए अणिवारिए सच्छंदमई सइरप्पयारी मजपसंगी चोजपसंगी मंसपसंगी जूयप्पसंगी वेसापसंगी परदारप्पसंगी जाए यावि होत्था।
धन्य सार्थवाह द्वारा अपने घर से निकाला हुआ यह चिलात दासचेटक राजगृह नगर में शृंगाटकों यावत् पथों में अर्थात् गली-कूचों में, देवालयों में, सभाओं में, प्याउंओं में, जुआरियों के अड्डों में, वेश्याओं के घरों में तथा मद्यपानगृहों में मजे से भटकने लगा।
उस समय उस दास-चेट चिलात को कोई हाथ पकड़ कर रोकने वाला (हटकने वाला) तथा वचन से रोकने वाला न रहा, अतएव वह निरंकुश बुद्धि वाला, स्वेच्छाचारी, मदिरापान में आसक्त, चोरी करने में आसक्त, मांसभक्षण में आसक्त, जुआ में आसक्त, वेश्यासक्त तथा पर-स्त्रियों में भी लम्पट हो गया।
१. अ. १८ सूत्र २.
२. अ. १८ सूत्र ५.